यदि हम सुखी रहना चाहते हैं तो हमें दूसरों को दुःख देने का भी कोई अधिकार नहीं है । मन, कर्म तथा वचन से ही किसी का दिल को न दुखाना ही अहिंसा है और इसको परम धर्म की उपाधि दी गई है । स्वार्थ अथवा अज्ञान वश ही हम दूसरों को कष्ट देते हैं । सुन्दरसाथजी हिंसा तीन प्रकार से हो सकती है जैसे मानसिक, शारीरिक तथा शाब्दिक । दूसरों के प्रति मन में बुरे विचार लाना भी हिंसा तुल्य है । यदि किसी को शारीरिक मानसिक अथवा शब्दों द्वारा दंड दिया जाए किन्तु इस आशय से कि यह उसके अपने ही दंड दिया जाए किन्तु इस बात का आभास करा दिया जाए । तो यह हिंसा नहीं । असहाय, निरीह, अबलाओ, शिशुओं, नौकरों, सुकुमारों पर हाथ चलाना भी घोर हिंसा के सामान हैं । भोजन अथवा दूसरे प्रयोजनों के लिये जीव ह्त्या, कम वेतन देना भी हिंसा ही है । इसलिये यह समझना कि शाकाहारी होने से अहिंसा है तो यह भी गल्त है ।
घर में घुसे चोर को, अपराधी को दंड तथा बीमारी फैलाने वाले कीटाणुओं को मारना हिंसा होते हुए भी बुरा नहीं । देश अथवा समाज रक्षा हेतु युद्ध भी हिंसा होते हुए भी उत्तम कार्य माने गए हैं ।
परणाम....................अर्जुन राज