3/26/2010
मीरा बाई के पद
राग अलैया
तोसों लाग्यो नेह रे प्यारे नागर नंदकुमार।
मुरली तेरी मन हरह्ह्यौ बिसरह्ह्यौ घर ब्यौहार।।
जबतैं श्रवननि धुनि परी घर अंगणा न सुहाय।
पारधि ज्यूं चूकै नहीं म्रिगी बेधि द आय।।
पानी पीर न जान ज्यों मीन तडफ मरि जाय।
रसिक मधुपके मरमको नहीं समुझत कमल सुभाय।।
दीपकको जो दया नहिं उडि-उडि मरत पतंग।
मीरा प्रभु गिरधर मिले जैसे पाणी मिलि गयौ रंग।।९।।
शब्दार्थ - बिसरह्ह्यो भूल गया। पारधि शिकारी। म्रिगी हिरणी।
बेधी दै बाण बेध दिया। पीर पीडा
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राग सोरठ
जोसीडा ने लाख बधाई रे अब घर आये स्याम।।
आज आनंद उमंगि भयो है जीव लहै सुखधाम।
पांच सखी मिलि पीव परसिकैं आनंद ठामूं ठाम।।
बिसरि गयो दुख निरखि पियाकूं सुफल मनोरथ काम।
मीराके सुखसागर स्वामी भवन गवन कियो राम।।१०।।
शब्दार्थ - जोसीडा ज्योतिषी। पांच सखी पांच ज्ञानेन्द्रियों से आशय है।
ठां जगह। सुफल पूरी हु। राम प्रियतम स्वामी से आशय है।
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राग परज
सहेलियां साजन घर आया हो।
बहोत दिनांकी जोवती बिरहणि पिव पाया हो।
रतन करूं नेवछावरी ले आरति साजूं हो।
पिवका दिया सनेसडा ताहि बहोत निवाजूं हो।।
पांच सखी इकठी भ मिलि मंगल गावै हो।
पियाका रली बधावणा आणंद अंग न मावै हो।।
हरि सागर सूं नेहरो नैणां बंध्या सनेह हो।
मीरा सखी के आंगणै दूधां बूठा मेह हो।।११।
शब्दार्थ - साजन प्रियतम। जोवती बाट देखती। सनेसडा सन्देश।
रली बधावनां आनन्द बधाई। नेहरो स्नेह। बंध्या फंस गये।
दूधां दूध की धारों से। बूठा बरसे।
पियाजी म्हारे नैणां आगे रहज्यो जी।।
नैणां आगे रहज्यो म्हारे भूल मत जाज्यो जी।
भौ-सागर में बही जात हूं बेग म्हारी सुधि लीज्यो जी।।
राणाजी भेज्या बिखका प्याला सो इमरति कर दीज्यो जी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर मिल बिछुडन मत कीज्यो जी।।१२।।
शब्दार्थ - नैणा नयन आंखें। बिख विष जहर। इमरित -अमृत।
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राग कजरी
म्हारा ओलगिया घर आया जी।
तन की ताप मिटी सुख पाया हिल मिल मंगल गाया जी।।
घन की धुनि सुनि मोर मगन भया यूं मेरे आनंद छाया जी।
मग्न भ मिल प्रभु अपणा सूं भौका दरद मिटाया जी।।
चंद कूं निरखि कमोदणि फूलैं हरषि भया मेरे काया जी।
रग राग सीतल भ मेरी सजनी हरि मेरे महल सिधायाजी।।
सब भगतन का कारज कीन्हा सो प्रभु मैं पाया जी।
मीरा बिरहणि सीतल हो दुख दंद दूर नसाया जी।।१३।।
शब्दार्थ -ओलगिया परदेसी प्रियतम। घन की धुनि बादल की गरज।
भौ का दरद संसारी दुख। कमोदनि कुमुदिनी। सिधाया पधारा।
दंद द्वन्द्व झगडा। नसाया मेट दिया।
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राग ललित
हमारो प्रणाम बांकेबिहारी को।
मोर मुकुट माथे तिलक बिराजे कुंडल अलका कारी को।।
अधर मधुर पर बंसी बजावै रीझ रिझावै राधा प्यारी को।
यह छवि देख मगन भ मीरा मोहन गिरधर -धारी को।।१४।।
शब्दार्थ - अलका कारी काली अलकें। रिझावै प्रसन्न करते हैं।
प्रेमालाप
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थांने हम सब ही की चिंता तुम सबके हो गरीबनिवाज।।
सबके मुगट सिरोमणि सिरपर मानीं पुन्यकी पाज।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बांह गहेकी लाज।।१।।
शब्दार्थ - होता जाज्यो होते हु जाना। टाला बहाना। म्हे मैं। थे तुम।
म्हाका मेरा। पावणडा पाहुना। छां हूं। घणेरी बहुत। पाज पुलमर्यादा
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राग हमीर
आ सहेल्हां रली करां है पर घर गवण निवारि।।
झूठा माणिक मोतिया री झूठी जगमग जोति।
झूठा आभूषण री सांची पियाजी री प्रीति।।
झूठा पाट पटंबरा रे झूठा दिखडणी चीर।
सांची पियाजी री गूदडी जामें निरमल रहे सरीर।।
छपन भोग बुहाय देहे इण भोगन में दाग।
लूण अलूणो ही भलो है अपणे पियाजीरो साग।।
देखि बिराणे निवांणकूं है क्यूं उपजावे खीज।
कालर अपणो ही भलो है जामें निपजै चीज।।
छैल बिराणो लाखको है अपणे काज न होय।
ताके संग सीधारतां है भला न कहसी कोय।।
बर हीणो अपणो भलो है कोढी कुष्टी कोय।
जाके संग सीधारतां है भला कहै सब लोय।।
अबिनासीसूं बालबा हे जिनसूं सांची प्रीत।
मीरा कूं प्रभुजी मिल्या है ए ही भगतिकी रीत।।२।।
शब्दार्थ - रली करां आनन्द मनायें। गवण जाना-आना। दिखणी दक्षिणी
दक्षिण में बननेवाला एक कीमती वस्त्र। चीर साडी। बुहाय देहे बहा दो
दाग दोष।अलूणो बिना नमक का। बिराणे पराये। निवांण उपजाऊ जमीन।
खीज द्वेष। कांकर कंकरीली जमीन। लाखको लाखों का अनमोल। हीणो हीन
लोह लोग। बालवा बालम प्रियतम।
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राग प्रभाती
जागो म्हांरा जगपतिरायक हंस बोलो क्यूं नहीं।।
हरि छो जी हिरदा माहिं पट खोलो क्यूं नहीं।।
तन मन सुरति संजो सीस चरणां धरूं।
जहां जहां देखूं म्हारो राम तहां सेवा करूं।।
सदकै करूं जी सरीर जुगै जुग वारणैं।
छोडी छोडी लिखूं सिलाम बहोत करि जानज्यौ।
बंदी हूं खानाजाद महरि करि मानज्यौ।।
हां हो म्हारा नाथ सुनाथ बिलम नहिं कीजिये।
मीरा चरणां की दासि दरस फिर दीजिये।।३।।
शब्दार्थ - छो हो। सदकै न्योछावर। वारणै न्योछावर कर दूं। सिलाम सलाम।
बन्दी दासी। खाना-जाद जन्म से ही घर में पली हु। महरि मेहर कृपा।
मानज्यौ मान लेना।
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राग हमीर
हरी मेरे जीवन प्रान अधार।
और आसरो नाहीं तुम बिन तीनूं लोक मंझार।।
आप बिना मोहि कछु न सुहावै निरख्यौ सब संसार।
मीरा कहै मैं दासि रावरी दीज्यो मती बिसार।।४।।
शब्दार्थ - आसरो सहारा। मंझार में। रावरी तुम्हारी।
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राग मांड
स्याम मने चाकर राखो जी। गिरधारीलाल चाकर राखो जी।।
चाकर रहसूं बाग लगासूं नित उठ दरसण पासूं।
बिंद्राबन की कुंज गलिन में तेरी लीला गासूं।।
चाकरी में दरसण पाऊं सुमिरण पाऊं खरची।
भाव भगति जागीरी पाऊं तीनूं बातां सरसी।।
मोर मुगट पीतांबर सोहे गल बैजंती माला।
बिंद्राबन में धेनु चरावे मोहन मुरलीवाला।
हरे हरे नित बाग लगाऊंबिच बिच राखूं क्यारी।
सांवरियाके दरसण पाऊंपहर कुसुम्मी सारी।।
जोगि आया जोग करणकूं तप करणे संन्यासी।
हरी भजनकूं साधू आया बिंद्राबनके बासी।।
मीराके प्रभु गहिर गंभीरा सदा रहो जी धीरा।
आधी रात प्रभु दरसन दीन्हें प्रेम नदी के तीरा।।५।।
शब्दार्थ - मने मुझको। लगासूं लगाऊंगी। गासूं गुण गाऊंगी।
खरची रोज के लि खर्चा। सरसी अच्छी से अच्छी। गहिरगंभीरा शान्त
स्वभाव के। रहो धीरा विश्वास रखो। तीरा किनारा क्षेत्र।
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राग हंस नारायण
आली सांवरे की दृष्टि मानो प्रेम की कटारी है।।
लागत बेहाल भ तनकी सुध बुध ग
तन मन सब व्यापो प्रेम मानो मतवारी है।।
सखियां मिल दोय चारी बावरी सी भ न्यारी
हौं तो वाको नीके जानौं कुंजको बिहारी।।
चंदको चकोर चाहे दीपक पतंग दाहै
जल बिना मीन जैसे तैसे प्रीत प्यारी है।।
बिनती करूं हे स्याम लागूं मैं तुम्हारे पांव
मीरा प्रभु ऐसी जानो दासी तुम्हारी है।।६।।
शब्दार्थ - आली सखी। मतवारी मतवाली। बावरी पगली।
न्यारी निराली। दाहे जला देता है।
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राग तिलक कामोद
छोड मत जाज्यो जी महाराज।।
मैं अबला बल नायं गुसाईं तुमही मेरे सिरताज।
मैं गुणहीन गुण नांय गुसाईं तुम समरथ महाराज।।
थांरी होयके किणरे जाऊं तुमही हिबडारो साज।
मीरा के प्रभु और न को राखो अबके लाज।।७।।
शब्दार्थ - नांय नहीं। थांरी तुम्हारी। किणरे किसकी। हिबडारो हृदय के।
निश्चय
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राग खम्माच
नहिं भावै थांरो देसडलो जी रंगरूडो।।
थांरा देसा में राणा साध नहीं छै लोग बसे सब कूडो।
गहणा गांठी राणा हम सब त्यागा त्याग्यो कररो चूडो।।
काजल टीकी हम सब त्याग्या त्याग्यो है बांधन जूडो।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बर पायो छै रूडो।।१।।
शब्दार्थ - थांरो तुम्हारा। देसलडो देश। रंग रूडो विचित्र।
साध साधु संत। कूडो निकम्मा। कररो हाथ का। टीकी बिन्दी
जूडो जूडा वेणी। रूडो सुंदर।
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राग गुनकली
मैं गिरधर के घर जाऊं।।
गिरधर म्हांरो सांचो प्रीतम देखत रूप लुभाऊं।।
रैण पडे तबही उठ जाऊं भोर भये उठ आऊं।
रैण दिना बाके संग खेलूं ज्यूं तह्यूं ताहि रिझाऊं।
जो पहिरावै सो पहिरूं जो दे सो खाऊं।
मेरी उणकी प्रीति पुराणी उण बिन पल न रहाऊं।।
जहं बैठावें तितही बैठूं बैचे तो बिक जाऊं।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बार बार बलि जाऊं।।२।।
शब्दार्थ - रैण रात्रि। भोर प्रातःकाल। ज्यूं तह्यूं जैसे तैसे सब प्रकार से
उण उन। बलि जाऊं न्योछावर होती हूं।
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राग पीलू
तेरो को नहिं रोकणहार मगन हो मीरां चली।।
लाज सरम कुलकी मरजादा सिरसें दूर करी।
मान अपमान दो धर पटके निकसी ग्यान गली।।
ऊंची अटरिया लाल किंवडिया निरगुण सेज बिछी।
पंचरंगी झालर सुभ सोहै फूलन बूल कली।।
बाजूबंद कडूला सोहे सिंदूर मांग भरी।
सुमिरण थाल हाथ में लीन्हों सोभा अधिक खरी।।
सेज सुखमणा मीरा सेहै सुभ है आज घरी।
तुम जा राणा घर आपणे मेरी थांरी नाहिं सरी।।३।।
शब्दार्थ - सरम शर्म। धर पटके परवा नहीं की। गली मार्ग।
किवडिया किवाड द्वार। बाजूबंद बांह पर पहनने का गहना। कडोला कडा
हाथ पर पहनने का गहना। खरी अच्छी। सेज सुखमणा सुषुम्ना नाडी से समाधि
लगाकर। सरी बन ग।
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राग पहाडी
सीसोद्यो रूठ्यो तो म्हांरो कांई कर लेसी।
म्हे तो गुण गोविन्द का गास्यां हो माई।।
राणोजी रूठ्यो वांरो देस रखासी
हरि रूठ्या किठे जास्यां हो माई।।
लोक लाजकी काण न मानां
निरभै निसाण घुरास्यां हो माई।।
राम नामकी झाझ चलास्यां
भौ-सागर तर जास्यां हो माई।।
मीरा सरण सांवल गिरधर की
चरण कंवल लपटास्यां हो माई।।४।।
शब्दार्थ - सीसोद्यो शीशोदिया आशय है यहां राणा भोजराज से जो मेवाड केमहाराणा सांगा के ज्येष्ठ राजकुमार थे इन्हीं के साथ मीराबाई का विवाह हुआ था।
रूठह्यौ रूठ गया। कांई कर लेसी क्या कर लेगा म्हे मैं। गास्यां गाऊंगीमाई सखी। किठे कहां। काण मर्यादा। निसाण नगाडा। घुरस्यां बजावेगी।
झाझ जहाज।
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राग कामोद
बरजी मैं काहूकी नाहिं रहूं।
सुणो री सखी तुम चेतन होयकै मनकी बात कहूं।।
साध संगति कर हरि सुख लें जगसूं दूर रहूं।
तन धन मेरो सबही जावो भल मेरो सीस लहूं
मन मेरो लागो सुमरण सेती सबका मैं बोल सहूं।
मीरा के प्रभु हरि अविनासी सतगुर सरण गहूं।।५।।
शब्दार्थ - बरजि मना करने पर। भलि चाहे। सीस लहूं सिर कटा दूं।
बोल अपमान का वचन निन्दा। गहूं पकडती हूं।
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राग पीलू
राणाजी म्हांरी प्रीति पुरबली मैं कांई करूं।।
राम नाम बिन नहीं आवडे हिबडो झोला खाय।
भोजनिया नहीं भावे म्हांने नींदडलीं नहिं आय।।
विष को प्यालो भेजियो जी जा मीरा पास
कर चरणामृत पी ग म्हारे गोविन्द रे बिसवास।।
बिषको प्यालो पीं ग जींभजन करो राठौर
थांरी मीरा ना मरूं म्हारो राखणवालो और।।
छापा तिलक लगाया जीं मन में निश्चै धार
रामजी काज संवारियाजी म्हांने भावै गरदन मार।।
पेट्यां बासक भेजियो जी यो छै मोतींडारो हार
नाग गले में पहिरियो म्हारे महलां भयो उजियार।।
राठोडांरीं धीयडी दी सींसाद्यो रे साथ।
ले जाती बैकुंठकूं म्हांरा नेक न मानी बात।।
मीरा दासी श्याम की जी स्याम गरीबनिवाज।
जन मीरा की राखज्यो को बांह गहेकी लाज।।६।।
शब्दार्थ - पुरबली पूर्व जन्म की। कांई क्या। आवडे रहता चैन पडती।
झोला खाय उथल-पुथल होता है। हेवडो हृदय। भावै चाहे।
पेट्यां पेटी के भीतर। बासक बासुकी सांप। धियडी पुत्री।
राखज्यौ रखियेगा।
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राग खंभावती
राम नाम मेरे मन बसियो रसियो राम रिझाऊं ए माय।
मैं मंदभागण परम अभागण कीरत कैसे गाऊं ए माय।।
बिरह पिंजरकी बाड सखी रींउठकर जी हुलसाऊं ए माय।
मनकूं मार सजूं सतगुरसूं दुरमत दूर गमाऊं ए माय।।
डंको नाम सुरतकी डोरी कडियां प्रेम चढाऊं ए माय।
प्रेम को ढोल बन्यो अति भारी मगन होय गुण गाऊं ए माय।।
तन करूं ताल मन करूं ढफली सोती सुरति जगाऊं ए माय।
निरत करूं मैं प्रीतम आगे तो प्रीतम पद पाऊं ए माय।।
मो अबलापर किरपा कीज्यौ गुण गोविन्दका गाऊं ए माय।
मीराके प्रभु गिरधर नागर रज चरणनकी पाऊं ए माय।।७।।
शब्दार्थ - हुलसाऊं मन बहलाऊंगी। गमाऊं गवां दूंखो दूं। डाको डंका।
कडियां ढोल की डोरियां। मोरचंग मुंह से बजाने का एक बाजामुंहचंग।
रज धूल।
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राग अगना
राणाजी थे क्यांने राखो म्हांसूं बैर।
थे तो राणाजी म्हांने इसडा लागो ज्यूं बृच्छन में कैर।
महल अटारी हम सब त्याग्या त्याग्यो थारो बसनो सैर।।
काजल टीकी राणा हम सब त्याग्या भगती-चादर पैर।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर इमरित कर दियो झैर।।८।।
शब्दार्थ - क्यां ने किसलि। म्हासूं मुझसे। इसडा ऐसे। कैर करील।
सैर शहर। पैर पहनकर। इमरित अमृत। झैर जहर।
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राग वृन्दावनी
आली म्हांने लागे वृन्दावन नीको।
घर घर तुलसी ठाकुर पूजा दरसण गोविन्दजी को।।
निरमल नीर बहत जमुना में भोजन दूध दही को।
रतन सिंघासन आप बिराजैं मुगट धरह्ह्यो तुलसी को।।
कुंजन कुंजन फिरति राधिका सबद सुनन मुरली को।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बजन बिना नर फीको।।१०।।
शब्दार्थ - म्हांने मुझे। मुगट मुकुट। फीको नीरस व्यर्थ।
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राग मधुमाध सारंग
या ब्रज में कछु देख्यो री टोना।।
लै मटकी सिर चली गुजरिया आगे मिले बाबा नंदजी के छोना।
दधिको नाम बिसरि गयो प्यारी लेलेहु री को स्याम सलोना।।
बिंद्राबनकी कुंज गलिन में आंख लगाय गयो मनमोहना।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सुंदर स्याम सुधर रसलौना।।१।।
शब्दार्थ - टोना जादू। गुजरिया ग्वालिन। छोना छोटा लडका।
लेलेहु री को स्याम सलोना स्यामसुन्दर को ले लो। सलोना सुन्दर।
आंख लगाय प्रीति जोडकर। रसलोना सलोने रसवाला।
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राग सूहा
चालो मन गंगा जमुना तीर।
गंगा जमुना निरमल पाणी सीतल होत सरीर।
बंसी बजावत गावत कान्हो संग लियो बलबीर।।
मोर मुगट पीताम्बर सोहे कुण्डल झलकत हीर।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल पर सीर।।२।।
शब्दार्थ - कान्हो कन्हैया। बलबीर कृष्ण के बडे भाई बलराम।
झलकत जगमगातेहैं। सीर सिर।
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राग धानी
मैं गिरधर रंग-राती सैयां मैं०।।
पचरंग चोला पहर सखी री मैं झिरमिट रमवा जाती।
झिरमिटमां मोहि मोहन मिलियो खोल मिली तन गाती।।
कोके पिया परदेस बसत हैं लिख लिख भेजें पाती।
मेरा पिया मेरे हीय बसत है ना कहुं आती जाती।
चंदा जायगा सूरज जायगा जायगी धरण अकासी।
पवन पाणी दोनूं ही जायंगे अटल रहे अबिनासी।।
और सखी मद पी-पी माती मैं बिन पियां ही माती।
प्रेमभठी को मैं मद पीयो छकी फिरूं दिनराती।।
सुरत निरत को दिवलो जोयो मनसाकी कर ली बाती।
अगम घाणि को तेल सिंचायो बाल रही दिनराती।।
जाऊंनी पीहरिये जाऊंनी सासरिये हरिसूं सैन लगाती।
मीराके प्रभु गिरधर नागर हरिचरणां चित लाती।।३।।
शब्दार्थ रंगराती प्रेम में रंगी हु। पचरंग आशय है पंच तत्वों से बना हुआ
शरीर। चोला ढीला ढाला कुर्ता यहां भी आशय है शरीर से।
झिरमिट झुरमुट मारने का खेल जिसमें सारा शरीर इस प्रकार ढक लिया जाता
है कि को जल्दी पहचान नहीं सके अर्थात् कर्मानुसार जीवात्मा की योनि का
शरीरावरण-धारण। गाती शरीर पर बंधी हु चादर खोल मिली आवरण हटा कर
तन्मय हो ग। धरण धरती। और सखी अन्य जीवात्मां। माती मतवाली।
बिन पियां बिना पिये ही। सुरत परमेश्वर की स्मृति। निरत विषयों से विरक्ति
संजोले सजा ले। भठी भट्टी शराब बनाने की। सैन संकेत।
टिप्पणी - इस पद में निराकार निर्गुण ब्रह्म से भक्तियोग के द्वारा साक्षात्कार
का स्पष्ट मार्ग दिखाया गया है जो रहस्य का मार्ग है।
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राग होरी सिन्दूरा
फागुन के दिन चार होली खेल मना रे।।
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।
बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे।।
सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उडत गुलाल लाल भयो अंबर बरसत रंग अपार रे।।
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीराके प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे।।४।।
शब्दार्थ - अणहद अन्तरात्मा का अनाहत शब्द। सुर स्वर। सार उत्तम।
अम्बर आकाश।
टिप्पणी - इस पद में होली के व्याज से सहज समाधि का
चित्र खेंचा गया है और ऐसी समाधि का साधन प्रेमपराभक्ति को बताया गया है।
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राग जौनपुरी
सखी री लाज बैरण भ।
श्रीलाल गोपालके संग काहें नाहिं ग।।
कठिन क्रूर अक्रूर आयो साज रथ कहं न।
रथ चढाय गोपाल ले गयो हाथ मींजत रही।।
कठिन छाती स्याम बिछडत बिरहतें तन त।
दासि मीरा लाल गिरधर बिखर क्यूं ना ग।।५।।
शब्दार्थ - बैरण बैरिन बाधा पहुंचानेवाली। न रथ जोतकर।तन त देह जल ग
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राग गूजरी
कुण बांचे पाती बिना प्रभु कुण बांचे पाती।
कागद ले ऊधोजी आयो कहां रह्या साथी।
आवत जावत पांव घिस्या रे वालाअंखिया भ राती।।
कागद ले राधा वांचण बैठी वाला भर आई छाती।
नैण नीरज में अम्ब बहे र बाला
गंगा बहि जाती।।
पाना ज्यूं पीली पडी रे
वाला
धान नहीं खाती।
हरि बिन जिवणो यूं जलै रे
वाला
ज्यूं दीपक संग बाती।।
मने भरोसो रामको रे
वाला
डूब तिरह्ह्यो हाथी।
दासि मीरा लाल गिरधर सांकडारो साथी।।६।।
शब्दार्थ - कुण कौन। पाती चिट्ठी। साथी सखा श्रीकृष्ण से आशय है।
घिस्या घिस गये। राती रोते-रोते लाल हो ग। अम्ब पानी। म्हने मुझे
सांकडारो संकट में अपने भक्तों का सहायक।
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राग खम्माच
मीरा मगन भई हरि के गुण गाय।।
सांप पिटारा राणा भेज्या मीरा हाथ दिया जाय।
न्हाय धोय जब देखन लागी सालिगराम ग पाय।।
जहरका प्याला राणा भेज्या इम्रत दिया बनाय।
न्हाय धोय जब पीवन लागी हो ग अमर अंचाय।।
सूली सेज राणा ने भेजी दीज्यो मीरा सुवाय।
सांझ भ मीरा सोवण लागी मानो फूल बिछाय।।
मीरा के प्रभु सदा सहाई राखे बिघन हटाय।
भजन भाव में मस्त डोलती गिरधर पर बलि जाय।।७।।
शब्दार्थ - इम्रत अमृत।अंचाय पीकर। बलि जाय न्योछावर होती है।
सिखावन
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राग झंझोटी
भज ले रे मन गोपाल-गुना।।
अधम तरे अधिकार भजनसूं जो आये हरि-सरना।
अबिसवास तो साखि बताऊं अजामील गणिका सदना।।
जो कृपाल तन मन धन दीनह्हौं नैन नासिका मुख रसना।
जाको रचत मास दस लागै ताहि न सुमिरो एक छिना।।
बालापन सब खेल गमायो तरुण भयो जब रूप घना।
वृद्ध भयो जब आलस उपज्यो माया-मोह भयो मगना।।
गज अरु गीधहु तरे भजनसूं को तरह्ह्यो नहिं भजन बिना।
धना भगत पीपामुनि सिवरी मीराकीहू करो गणना।।१।।
शब्दार्थ - गुनां गुणों का। साखी साक्षी प्रमाण। सदना भक्त सदन कसाई।
रसना जीभ। छिना क्षण। धना बडा बहुत। गीध जटायु से तात्पर्य है।
धना एक हरिभक्त। सिवरी शबरी भीलनी।
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राग श्री
राम नाम-रस पीजै मनुआं राम-नाम-रस पीजै।
तज कुसंग सत्संग बैठ नित हरि-चर्चा सुनि लीजै।।
काम क्रोध मद लोभ मोहकूं बहा चित्तसें दीजै।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर ताहिके रंग में भीजे।।२।।
शब्दार्थ - बहा दीजै हटा देना चाहि। रंग में भीजै प्रेमरस में भीग जाना
चाहि।
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राग शुद्ध सारंग
चालो अगमके देस कास देखत डरै।
वहां भरा प्रेम का हौज हंस केल्यां करै।।
ओढण लज्जा चीर धीरज कों घांघरो।
छिमता कांकण हाथ सुमत को मूंदरो।।
दिल दुलडी दरियाव सांचको दोवडो।
उबटण गुरुको ग्यान ध्यान को धोवणो।।
कान अखोटा ग्यान जुगतको झोंटणो।
बेसर हरिको नाम चूडो चित ऊजणो।।
पूंची है बिसवास काजल है धरमकी।
दातां इम्रत रेख दयाको बोलणो।।
जौहर सील संतोष निरतको घूंघरो।
बिंदली गज और हार तिलक हरि-प्रेम रो।।
सज सोला सिणगार पहरि सोने राखडीं।
सांवलियांसूं प्रीति औरासूं आखडी।।
पतिबरता की सेज प्रभुजी पधारिया।
गावै मीराबाई दासि कर राखिया।।३।।
शब्दार्थ - अगम जहां पहुंच न हो परमात्मा का पद। हंस जीवात्मा से आशय है।
केल्यां क्रीडां। छिमता क्षमा दुलडी दो लडोंवाली माला।
दोबडो गले में पहनने का गहना। अखोटा कान का गहना।
झोंटणों कान का एक गहना। बेसर नाक का एक गहना। ऊजणो शुद्ध।
जैहर एक आभूषण। बिंदली टिकुली। गज गजमोतियों की माला।
आखडी टूट ग। राखडी चूडामणि
टिप्पणी - परमात्मारूपी स्वामी से तदाकार होने के लि मीराबाई ने इस पद में विविध
श्रृंगारों का रूपक बांधा है भिन्न-भिन्न साधनों का।
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राग हमीर
नहिं एसो जनम बारंबार।।
का जानूं कछु पुन्य प्रगटे मानुसा-अवतार।
बढत छिन-छिन घटत पल-पल जात न लागे बार।।
बिरछके ज्यूं पात टूटे लगें नहीं पुनि डार।
भौसागर अति जोर कहिये अनंत ऊंडी धार।।
रामनाम का बांध बेडा उतर परले पार।
ज्ञान चोसर मंडा चोहटे सुरत पासा सार।।
साधु संत महंत ग्यानी करत चलत पुकार।
दासि मीरा लाल गिरधर जीवणा दिन च्यार।।४।।
शब्दार्थ - अवतार जनम। ऊंडी गहरी। चौसर चौपड का खेल। च्यार चार।
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राग बिहागरा
रमैया बिन यो जिवडो दुख पावै। कहो कुण धीर बंधावै।।
यो संसार कुबुधि को भांडो साध संगत नहीं भावै।
राम-नाम की निंद्या ठाणै करम ही करम कुमावै।।
राम-नाम बिन मुकति न पावै फिर चौरासी जावै।
साध संगत में कबहुं न जावै मूरख जनम गुमावै।।
मीरा प्रभु गिरधर के सरणै जीव परमपद पावै।।५।।
शब्दार्थ - जिवडो जीव। कुबुधि दुर्बुद्धि। भांडो बर्तन।
कुमावै कमाता है। चौरासी चौरासी लाख योनियां।
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राग बिलावल
लेतां लेतां रामनाम रे लोकडियां तो लाजो मरै छे।
हरि मंदिर जातां पांवडियां रे दूखै फिर आवै आखो गाम रे।
झगडो धाय त्यां दौडीने जाय रे मूकीने घर ना काम रे।।
भांड भवैया गणकात्रित करतां वैसी रहे चारे जाम रे।
मीरा ना प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल चित हाय रे।।६।।
सब्दार्थ - लोकडियां लोग। लाजां मरे छे शर्म के मारे मरते हैं।
पांवडियां पैर। आखो सारा। धाय हो रहा हो। त्यां तहां।
मूकीने छोडकर। भवैया नाचने-वाले। बैसी रहे बैठा रहता है।
टिप्पणी - यह पद गुजराती भाषा में रचा गया है।
नाम
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राग धनाश्री
मेरो मन रामहि राम रटै रे।
राम नाम जप लीजे प्राणी कोटिक पाप कटै रे।
जनम जनमके खत जु पुराने नामहि लेत फटै रे।।
कनक कटोरे इम्रत भरियो पीवत कौन नटै रे।
मीरा कहे प्रभु हरि अबिनासी तन मन ताहि पटै रे।।१।।
शब्दार्थ - खत कर्ज के कागज यहां आशय है पाप-कर्म का लेखा।
फटै चुक जाते हैं। नटै इन्कार करता है। पटै मिल जाते हैं।
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राग श्रीरंजनी
पायो जी म्हे तो राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु किरपा कर अपनायो।।
जनम जनमकी पूंजी पाई जगमें सभी खोवायो।
खरचै नहिं को चोर न लेवै दिन-दिन बढत सवायो।।
सतकी नाम खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो।
मीराके प्रभु गिरधर नागर हरष हरष जस गायो।।२।।
शब्दार्थ - म्हे मैंने। पूंजी मूल धन। खोवायो खो दिया त्याग दिया।
खेवटिया मल्लाह। जस गुण कीर्तन।
गुरु-महिमा
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राग मलार
लागी मोहिं नाम-खुमारी हो।।
रिमझिम बरसै मेहडा भीजै तन सारी हो।
चहुंदिस दमकै दामणी गरजै घन भारी हो।।
सतगुर भेद बताया खोली भरम -किंवारी हो।।
सब घट दीसै आतमा सबहीसूं न्यारी हो।।
दीपग जों ग्यानका चढूं अगम अटारी हो।
मीरा दासी रामकी इमरत बलिहारी हो।।३।।
शब्दार्थ - खुमारी थकावट हल्का नशा। मेहडा मेघ आशय प्रेम की भावना से है।
सारी सारा अंग अथवा साडी। भरम-किंवारी भ्रांतिरूपी किवाड। दीपग दीपक
जोंजलाती हूं। अटारी ऊंचा स्थान परमपद से आशय है। इमरत अमृत।
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राग धानी
री मेरे पार निकस गया सतगुर मारह्ह्या तीर।
बिरह-भाल लगी उर अंदर व्याकुल भया सरीर।।
इत उत चित्त चलै नहिं कबहूं डारी प्रेम-जंजीर।
कै जाणै मेरो प्रीतम प्यारो और न जाणै पीर।।
कहा करूं मेरों बस नहिं सजनी नैन झरत दो नीर।
मीरा कहै प्रभु तुम मिलियां बिन प्राण धरत नहिं धीर।।४।।
शब्दार्थ री अरी सखी। पार आर-पार। तीर-मारह्ह्या रहस्य के शब्द द्वारा
इशारे से बता दिया। चले नहिं विचलित नहीं होता है। डारी डाल दी।
नीर जल आंसुं से तात्पर्य है।
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राग धानी
मोहि लागी लगन गुरुचरणन की।
चरण बिना कछुवै नाहिं भावै जगमाया सब सपननकी।।
भौसागर सब सूख गयो है फिकर नाहिं मोहि तरननकी।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर आस वही गुरू सरननकी।।५।।
शब्दार्थ - लगत प्रीति। कछुवै कुछ भी। सपनकी स्वप्नों की मिथ्या।
सूख गयो समाप्त हो गया।
प्रकीर्ण
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राग पीलू
देखत राम हंसे सुदामाकूं देखत राम हंसे।।
फाटी तो फूलडियां पांव उभाणे चरण घसे।
बालपणेका मिंत सुदामां अब क्यूं दूर बसे।।
कहा भावजने भेंट पठाई तांदुल तीन पसे।
कित ग प्रभु मोरी टूटी टपरिया हीरा मोती लाल कसे।।
कित ग प्रभु मोरी गौन बछिया द्वारा बिच हसती फसे।
मीराके प्रभु हरि अबिनासी सरणे तोरे बसे।।१।।
शब्दार्थ - राम यहां श्रीकृष्ण से आशय है। साथी सखा। फूलडियां ज्योतियां
घिस्या घिस गये। उभाडै फूल गये। पठाई भेजी। तान्दुल चांवल।
परिया झोंपडी। हसती हाथी।
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राग नीलांबरी
सूरत दीनानाथ से लगी तू तो समझ सुहागण सुरता नार।।
लगनी लहंगो पहर सुहागण बीतो जाय बहार।
धन जोबन है पावणा रो मिलै न दूजी बार।।
राम नाम को चुडलो पहिरो प्रेम को सुरमो सार।
नकबेसर हरि नाम की री उतर चलोनी परलै पार।।
ऐसे बर को क्या बरूं जो जनमें औ मर जाय।
वर वरिये इक सांवरो री चुडलो अमर होय जाय।।
मैं जान्यो हरि मैं ठग्यो री हरि ठगि ले गयो मोय।
लख चौरासी मोरचा री छिन में गेरह्ह्या छे बिगोय।।
सुरत चली जहां मैं चली री कृष्ण नाम झणकार।
अविनासी की पोल मरजी मीरा करै छै पुकार।।२।।
शब्दार्थ - सूरत सुरत लय। नार नारी। लगनी लगन प्रीति।
पावणा पाहुना अनित्य। चुडलो सौभाग्य की चूडी।
परलै संसारी बन्धन से छूटकर वहां चला जा जहां से लौटना नहीं होता है।
गेरह्ह्यो छे बिगोय नष्ट कर दिया है। पोल दरवाजा।
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राग काफी-ताल द्रुत दीपचंदी
मुखडानी माया लागी रे मोहन प्यारा।
मुघडुं में जियुं तारूं सव जग थयुं खारूं
मन मारूं रह्युं न्यारूं रे।
संसारीनुं सुख एबुं झांझवानां नीर जेवुं
तेने तुच्छ करी फरी रे।
मीराबाई बलिहारी आशा मने एक तारी
हवे हुं तो बडभागी रे।।३।।
शब्दार्थ - माया लगन प्रीति। जोयुं देखा। तारूं तेरा। थयुं खारूंअर्थात
नीरस हो गया। एवुं ऐसा। झांझवानाम मृग-तृष्णा। जेवुं जैसा।
फरी घूम रही हूं। हवे अब।
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राग मिश्र काफी- ताल तिताला
अब तौ हरी नाम लौ लागी।
सब जगको यह माखनचोरा नाम धरह्ह्यो बैरागीं।।
कित छोडी वह मोहन मुरली कित छोडी सब गोपी।
मूड मुडा डोरि कटि बांधी माथे मोहन टोपी।।
मात जसोमति माखन-कारन बांधे जाके पांव।
स्यामकिसोर भयो नव गौरा चैतन्य जाको नांव।।
पीतांबर को भाव दिखावै कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरा रसना कृष्ण बसै।।४।।
टिप्पणी - ऐसा जान पडता है कि वृन्दावन में श्री जीव गोस्वामी से भेंट होने के
बाद चैतन्य महाप्रभु का गुण-कीर्तन इस पद में मीराबाई ने किया था।