कंगन का दान
संस्कृत के कवियों में माघ का श्रेष्ठ स्थान है, वह साधन-संपन्न तो थे ही, दान देने में भी अग्रणी थे, लोगों को विश्वास था कि उनके घर से कोई भी याचक कभी खाली हाथ नहीं लौटता था !
दान देते-देते एक अवसर ऐसा भी आया कि जब वह खुद ही निर्धन हो गए ! लेकिन मदद करने की भावना में कोई कमी नहीं आई ! वह लोगों की सहायता के लिए पहले की तरह ही तत्पर रहते थे ! एक रात किसी गरीब पुजारी ने उनका दरवाजा खटखटाया ! माघ ने दरवाजा खोला तो पुजारी ने बाहर आनेका निवेदन किया और कहा, मेरी बेटी की शादी है ! कैसे विवाह कर पाऊँगा, इस बात की चिंता सताती रहती है ! मैं आपसे कुछ सहायता माँगने आया हूँ ! कविवर ने सोचा कि इस समय न घर में धन है, न कोई ऐसी वास्तु जो याचक को दी जा सके ! कुछ देर सोचने के बाद वह अपनी सोयी हुई पत्नी के पास गए और धीरे से उसका हाथ उठाकर उससे कंगन उतारा ! पत्नी कि नींद खुल गई, परन्तु पति को सामने देखकर उसने आँखें बंद कर लीं ! माघ ने बाहर आकर वह कंगन उस पुजारी को दे दिया और उसे वहाँ से जल्दी भाग जाने के लिए कहा ! किन्तु पत्नी ने दरवाजे की दरार से सब कुछ देख लिया कि उसके पतिदेव किसको वह कंगन दे रहे हैं ! उस पुजारी ने माघ से कहा, इस सहयोग के लिए मैं आपका आभारी हूँ परन्तु एक कंगन मेरे लिए अपर्याप्त है ! माघ ने कहा, अभी तुम एक ले जाओ, दूसरा मैं नहीं दे सकता ! पत्नी ने तुरंत दूसरा कंगन उतारा और बाहर आकर कविवर को देते हुए कहा, मुझसे क्यों छुपा रहे थे ! दीन दुखियारीयों की मदद के लिए ही तो हमारा जीवन है !!
प्रणाम.........................
अर्जुन राज