11/24/2010

ईर्ष्या जैसी व्याधि की कोई दवा नहीं

य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्य कुलान्वये।
सुखभौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिनन्तकः।

हिंदी में भावार्थ-जो दूसरे का धन, सौंदर्य, शक्ति और प्रतिष्ठा से ईर्ष्या करता है उसकी व्याधि की कोई औषधि नहीं है।



न कुलं वृत्तही प्रमाणमिति मे मतिः।
अन्तेध्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते।।
हिंदी में भावार्थ-अगर प्रवृत्ति नीच हो तो ऊंचे कुल का प्रमाण भी सम्मान नहीं दिला सकता। निम्न श्रेणी के परिवार में जन्मा व्यक्ति प्रवृत्ति ऊंची का हो तो वह अवश्य विशिष्ट सम्मान का पात्र है।



वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ईर्ष्या का कोई इलाज नहीं है। मनुष्य में रहने वाली यह प्रवृत्ति उसका पूरा जीवन ही नरक बना देती है। मनुष्य जीवन में बहुत सारा धन कमाता और व्यय करता है पर फिर भी सुख उससे परे रहता है। सुख कोई पेड़ पर लटका फल नहीं है जो किसी के हाथ में आ जाये। वह तो एक अनुभूति है। अगर हमारे रक्तकणों में आनंद पैदा करने वाले तत्व हों तभी सुख की अनुभूति हो सकती है। इसके विपरीत लोग तो दूसरे के सुख से जले जा रहे हैं। अपनी पीड़ा से अधिक कहीं उनको दूसरे का सुख परेशान करता है। इससे कोई विरला ही मुक्त हो पाता है। ईर्ष्या और द्वेष से मनुष्य में पैदा हुआ संताप मनुष्य को बीमार बना देता है। उसके इलाज के लिये वह चिकित्सकों के पास जाता है। फिर भी उसमें सुधार नहीं होता क्योंकि ईष्र्या और द्वेष का इलाज करने वाली कोई दवा इस संसार में बनी ही नहीं है।


जो लोग जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर सम्मान पाने का मोह पालते हैं वह मूर्ख हैं। उसी तरह पैसा, पद, और प्रतिष्ठा पाने पर अगर कोई यह भ्रम पाल लेता है कि लोग उनका सम्मान करते हैं तो वह भी नहीं रखना चाहिये। लोग दिखाने के लिये अपने से अधिक धनवान का सम्मान करते हैं पर हृदय से उसी व्यक्ति को चाहते हैं जो उनसे अधिक गुणवान होता है। गुणों की पहचान ही मनुष्य की पहचान होती हैं। इसलिये अपने अंदर सद्गुणों का संचय करना चाहिए। दूसरे का सुख और वैभव देखकर अपना खून जलाने से कोई लाभ नहीं होता

अवगुण काढ़े गुण ग्रहे, हारे से हुए जीत | साहेब सों सनमुख सदा, ब्रह्म सृष्टिका एही रीत ||

11/03/2010

दीपावलीकी शुभकामना

दीपावलीकी शुभकामना 
जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ कृष्णमणिजी महाराज 
धर्मप्राण सुन्दरसाथजी !
आप सभीको दीपावलीकी हार्दिक शुभकामनाएँ | आपको विदित ही है कि दीपावली प्रकाशका पर्व है | यह पर्व अपने अंत:करणमें ज्ञानरूपी दीपक प्रज्जवलित कर अज्ञानरुपी अन्धकार दूर करनेके लिये प्रेरणा देता है | तारतम ज्ञानके द्वारा हृदयको प्रकाशित कर आत्माका अनुभव करने लगेंगे तो प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होगी और हम पूर्णब्रह्म परमात्मा श्रीराजजीके सान्निध्यका अनुभव कर पाएँगे | महामतिने इस उत्सवके लिए कहा है |
दीपनो मेलो रे ओच्छव अति भलो, जिहां सणगार करो धनी सर्व साथ |

दीपावलीके पावन पर्व पर आत्माका श्रृंगार होना चाहिए | वह प्रेमसे ही संभवहै | वास्तवमें आत्माका श्रृंगार ही प्रेम है | प्रेमसे ही परमात्मा मिलन संभव है | महामतिने कहा भी है, 
"प्रेम खोल देवे सब द्वार"
"प्रेम पहोंचावे मिने पलक"
प्रेमके द्वारा ही पारके द्वार खुलेंगे और श्री राजजीके सानिध्यका अनुभव होगा | यह प्रेम विशुद्ध प्रेम है | इसमें मायाके कोई विकार नहीं होंगे | दुनियाँमें जिसको प्रेम कहा जता है वह विषयोंका विकार है उसकी ओर उन्मुख होनेसे पतन होगा | महामतिने  जिस प्रेमकी चर्चा की वह आत्माका प्रेम है | ब्रह्मात्माएँ यही श्रृंगार धारण कर श्रीराजजीके सान्निध्यका अनुभव करेंगी |

सुन्दरसाथजी ! ब्रह्मात्माओंके लिए ही तारतमज्ञानका अवतरण हुआ है | यह ज्ञान हृदयको प्रकाशित करनेके लिए है | इसके द्वारा आलोकित हृदयमें प्रेमका अंकुर फूटेगा | तदनन्तर यह प्रेम आगे बढ़ते-बढ़ते अपने प्रियतम धनी पूर्णब्रह्म परमात्मा तक पहुँचेगा | इसी प्रेमके द्वारा हमें अपने प्रियतम धनी पूर्णब्रह्म परमात्माका अनुभव होगा | इस अनुभवको और आगे बढ़ाते जाएँ | कभी न कभी हमें अपने धनीके दर्शन अवश्य होंगे |

ध्यान रखें ! आत्मा और परमात्माको जाननेके लिए तारतम ज्ञान एवं आत्मा और परमात्माकी अनुभूतीके लिए प्रेमलक्षणा भक्तिका अवतरण हुआ है | प्रेम प्रकट होने पर हम हर क्षण श्री राजजीका अनुभव कर पायेंगे | हमें ऐसा अनुभव होगा कि मैं हर क्षण श्रीराजजीके सान्निध्यमें हूँ | 
दीपावलीका यह पावन पर्व सभी सुन्दरसाथको अपने धामधनीकी अनुभूतिके लिए सहयोगी बने | प्रणाम 

श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर 

11/02/2010

दीवाली का सम्बन्ध दिल से है

आप सभीको दीपावलीकी हार्दिक मंगलमय शुभकामनाएँ |

सामने दीवाली है. एकदम सामनेहर कोई उसके स्वागत को तैयार है. धनपति की अपनी तैयारी है. निर्धन की अपनी आधी-अधूरी तैयारी है . दरअसल दीवाली का सम्बन्ध दिल से है. कहा भी तो गया है, , कि मन चंगा तो कठौती में गंगा. मन में उदासी है, जेब खाली तो कैसी दीवाली? महंगाई के कारण आम आदमी का दिवाला पिट रहा है. वह भीतर-भीतर रोता है, बाहर-बाहर मुस्काता है. लेकिन त्यौहार हमें नवीन कर देते है. दुःख के पर्वत को काट देते है. त्यौहार के आने से मन में उत्साह जगाता है, कि आने वाला कल शायद बेहतर होगा. इससे बेहतर. घर की सफाई करता है, पुताई करता है. नवीनता को जीने की कोशिश है यह. अभावो के बीच भावः ख़त्म नहीं होते. कंगाली है, फिर भी आदमी दीवाली मनायेगा. अमीर की भी दीवाली है तो गरीब की भी. सब अपनी-अपनी हैसियत से दीवाली मना लेते है. यही है अपना देश. लेकिन दीवाली के पहले भारत माता की ओर से धनपतियो से अपील तो की ही जा सकती है, कि इस दीवाली पर तुम एक काम करना- गरीब बच्चो का भी ध्यान रखना. जो बच्चे अनाथालयों में पल रहे है, उनके लिए भी कुछ मिठाईयां (नकली नहीं..), कुछ पटाखे भी खरीद कर वहां तक पहुंचा देना. यही हमारे नागरिक होने का फ़र्ज़ है. वृधाश्रम में उपेक्षित बुजुर्ग रहते है. उनके बीच भी जाना. दीवाली की खुशियाँ तब और बढ़ जायेगी. ये नुसखे आजमा कर तो देखें. दीवाली के पहले ये अपील इसलिए ताकि कोई हलचल हो. वैसे देश में अच्छा सोचने और करने वालों की कमी नहीं. मै जो बात कह रहा हूँ, बहुत से लोग ये सब करते है. उससे कहीं ज्यादा करते है |

श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर 
अर्जुन राज पुरी 

प्रारब्ध और पुरुषार्थका रहस्य

प्रारब्ध और पुरुषार्थका रहस्य 
कितने ही मनुष्य प्रारब्धको, भाग्यको प्रधान बताते हैं और कितने ही पुरुषार्थको | किन्तु वास्तवमें अपने-अपने स्थानमें ये दोनों ही प्रधान हैं | धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारोंको पुरुषार्थ कहते हैं, इनमें धर्म, अर्थ, काम तो 'पुरुषार्थ' हैं और मोक्ष 'परम पुरुषार्थ' है | इन चारोंमेंसे धर्म और मोक्ष के साधनमें पुरुषार्थ ही प्रधान है | इन दोनोंको जो मनुष्य प्रारब्धपर छोड़ देता है, वह इनके लाभसे वंचित रह जाता है; क्योंकि धर्म और मोक्षका साधन प्रयत्नसाध्य है | अपने-आप सिध्द होनेवाला नहीं है, किन्तु अर्थ और कामकी सिध्दमें प्रारब्ध प्रधान है, प्रयत्न तो उसमें निमित्तमात्र है | 

श्री कृष्णजी गीतामें अर्जुन को कहते हैं कि हे अर्जुन "कर्मफलका त्याग न करनेवाला मनुष्योंके कर्मका तो अच्छा-बुरा और मिला हुआ- इस प्रकार तीन तरहका फल मरनेके पश्चात अवश्य मिलता है, किन्तु कर्मफलका त्याग कर देनेवाले मनुष्योंको कर्मोंका फल किसी कालमें भी प्राप्त नहीं होता |"

किसी कर्मको मनुष्य सकामभावसे करता है तो उसका इस लोकमें स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थोंकी प्राप्ति और परलोकमें स्वर्गादिकी प्राप्तिरूप फल होता है तथा निष्कामभावसे किये हुए थोड़े-से भी कर्त्तव्यपालनका फल परमात्माकी प्राप्तिरूप मुक्ति है- स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात | गीता २ | ४० )

'इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान भयसे रक्षा कर लेता है |' मनुष्य कर्म करनेमें अधिकांश स्वतन्त्र है, पर फल भोगनेमें सर्वथा परतन्त्र है | भगवनने स्वयं कहा है- 
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोस्त्वकर्मणि || (गीता-२ | ४७)
हे अर्जुन ! 'तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके पलोंमें कभी नहीं | इसलिये तु फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो |' अतएव मनुष्यको उचित है कि निष्कामभावसे अपने कर्त्तव्यकर्मका पालन करे | जो किये हुए कर्मोंका पल न चाहकर कर्त्तव्यकर्म कराता है, उसका अंत:कारण शुध्द होकर उसे परमात्माकी 
प्राप्तिरूप मुक्ति मिल जाती है |

श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर
अर्जुन राज पुरी 

10/28/2010

वन्दन गुरु देवकी

वन्दन गुरु देवकी 
अनन्त विभूषित परमवन्दनीय प्रात:स्मरणीय जगतगुरु आचार्य श्री १०८ कृष्णमणिजी महाराज के इन पावन चरण कमलोंमें पुष्प अर्पित शाष्टांग दण्डवत प्रेम-प्रणाम भेट में चढ़ाता हूँ |

आज के इस पावन सन्त मिलन के शुभ बेला पर उपस्थित सन्त महापुरुष, विद्वोत वर्ग, विद्यार्थी मित्रों, श्री ५ नवतनपुरी धाम के माननीय ट्रस्टी वर्ग तथा दूर-दूरसे पधारे हुए भक्त समुदाय तथा श्री राजश्यमाजी के लाडिले प्यारे सुन्दरसाथको मेरा अन्तर हृदय से पुष्प अर्पित प्रेम प्रणाम |

प्यारे सुन्दरसाथजी ! सतगुरु की महिमा गानेसे गाया नहीं जा सक्ता, लिखने से लिखा नहीं जा सक्ता, सब्दों के द्वारा पुष्टि किया नहीं जा सक्ता है. क्योंकि गुरु और गोविन्द दोनों एक हैं | इन दोनों की महिमा जितनी भी लिखी जय, कही जय, तथा सूनी जय, फ़िर भी कमी ही होती है | और कमी का ही महेसूश होता ही रहेगा |

सन्त कबीरदासजी इस बातको पुष्टी करते हैं, कि अगर शीश देकर गुरु मिल जाय तो भी सस्ता जान | गुरु गीता में कहा है, गुरु 
ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही महेश्वर हैं, गुरु ही साक्षात पूर्णब्रह्म परमात्मा हैं | 
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमुर्तिम |
द्वंदातीतं गगन सद्रिषम तत्त्वमस्यादि लक्ष्यं ||
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वदा साक्षीरुपम |
भावातीतं त्रिगुण रहितं सद्गुरु तं नमामी ||
सुन्दरसाथजी ! जो ब्रह्मानन्द स्वारूप, परम सुख दाता, देवल ज्ञानमूर्ति, द्वन्दोंसे परे, गगन सदृश, तत्त्वमसि आदि महावाक्योंके लक्ष्यार्थभूत, एक, नित्य, विमल, अचल, समस्त बुद्धियोंके साक्षी और भावातीत हैं उन त्रिगुण रहित सदगुरुको मैं प्रणाम परता हूँ    |

प्यारे सुन्दरसाथजी इन्हीं दो शब्दों के साथ समस्त स-चराचर ब्रह्माण्डमें व्याप्त पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्णजी के चरणोंके जिन्होंने साक्षात दर्शन का अनुभव करवाया ऐसे सतगुरु श्री देवचंद्रजी महाराज तथा अनन्त विभूषित परमवन्दनीय सुख के दाता वर्तमान सतगुरु श्री १०८ कृष्णमणिजी महाराज के उन पावन चरण-कमलोंमें तन, मन श्रद्धा से पुष्प अर्पित प्रेम प्रणाम करता हूँ || प्रणाम ||

श्री ५ नवतनपुरी धाम सन्त सभा 
अर्जुन राज  

9/18/2010

कहे महामत प्रेम समान,

कहे  महामत  प्रेम  समान,  तुम  दूजा  जिन  कोई  जान ।
ले    उछरंग  ते  घर   आए,   पिया   प्रेमें  कंठ लगाए ।। ६६ ।।

7/31/2010

अब्वल मेहेर है तित

महामति श्री प्राणनाथजी कहते हैं- प्रियतम परमात्माकी मधुर कृपाको मैंने अन्तरहृदयसे विचार पूर्वक देखा तो जहाँ उनका अलौकिक प्रेम रहता, वहीं पहलेसे ही मेहेरकी उपस्थिति भी रहती है ।
पूर्णब्रह्म परमात्माकी कृपा और प्रेमकी तुलना हम नहीं कर सकते हैं क्योंकि दोनों महान हैं । इसमें छोटा-बड़ा न्यूनाधिककी बात नहीं है । किसी माँ से पूछे कि-तुम्हारे दो बेटेमें से किससे अधिक प्यार है ? वह माँ क्या उत्तर देगी ? दोनों बेटे अपने हैं, किसमें ज्यादा प्रेम है कैसे कहें ? दोनोंमें बराबर रहता है । फ़िर भी उस माँ से कहा जाए कि तुम किसे अलग कर सकती हो ? वह कहेगी बड़ा बेटा कुछ समर्थ है, लेकिन छोटा तो कुछ नहीं कर सकता । अत: यदि लेजाना चाहते होतो बडेको लेजाना । विवश होकर माँ ऐसा उत्तर देगी । माँका प्यार, दोनोंमें न्यूनाधिक नहीं रहता है । इसी प्रकार परब्रह्म परमात्माकी मेहेर और इश्कमें कम ज्यादा नहीं है । एक सिक्केकी दो पहलूकी भाँति है । परन्तु महामति श्री प्राणनाथजी का कथन है कि यदि विवेकपूर्वक दिल, दिमागसे विचार कर देखा जाए तो जहाँ जिसके ऊपर परमात्माके अटूट प्रेम रहता है, वह प्रेम भी परमात्माके ही कृपा दृष्टिसे जानना चाहिए । यदि उनकी कृपा न होगी तो प्रेम भी कैसे उपलब्ध होगी ? कृपासागरकी कृपा के बिना कुछ भी होना संभव नहीं है । पल-पल क्षण-क्षण, कण-कणमें उनकी अमृतमयी कृपाकी वर्षा हो रही है एवं जहाँ प्रेमका अस्तित्व रहता है उससे पूर्व ही वहाँ मेहेरकी मौजूदगी रहती है । प्रिय सुन्दरसाथजी परमात्मा कि प्रेम (मेहेर) को समझने के लिए विशाल हृदयकी आवसेकता है । प्रणाम ।
अर्जुन राज

7/01/2010

प्रेम पात्र

प्रेम पत्र :-
श्री धामधनीजीके लाड़ले प्यारे सुन्दरसाथजी ! परमधामके चितवनी द्वारा विवेक जाग्रत होने से सत असत का ज्ञान हो जाता है । सत असत के वास्तविक ज्ञान हो जाने के पश्चात पराभव (अनन्य प्रेम) पैदा होता चला जाता है । पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्रीकृष्णजीके लिए तो हृदयका समर्पण ही प्रेम है । प्रेम और परमात्मा एक दूसरे के रूप है "प्रेम ब्रह्म दोऊ एक है" दण्ड देनेका अधिकार भी सिर्फ़ उसे है जो प्रेम करता है, तथा प्रेम, प्रेमी और प्रेमपात्र तीन होकर भी एक है, उस प्रेमका पात्र कैसा होना चाहिए इसी विषय पर इस लेख में विचार किया जा रहा है ।
यह संसार प्रेमके बल पर ही चल रहा है । प्रेमी आत्माकी दृष्टिमें जाती पति मजहब व देश-प्रदेशका प्रश्न नही उठाता है । प्रेम तो जीवनकी मधुराती-मधुर वास्तु है । प्रेम कभी भी हक नहीं माँगता, वह तो हमेशा देता है । आत्म दृष्टिमें सब एक हैं, समदृष्टि है सब उस परात्पर पूर्णब्रह्म परमात्माके बन्दे हैं । इसी पर प्रकाश डालते हुए कबीर साहेबजी कहते हैं - एक नूर से सब जग उपजिया, कौन भले कौन मन्दे । महामति श्री प्राणनाथजी अपने श्री मुख से कहते हैं-
पर सबाब तिनको होवही, छोटा बड़ा जो किन ।
एकै नज़रों देखिए, सबका खाबिंद पिउ !! (श्री तारतम सागर)
प्रेम दुनियाकी रोशनी है । प्रेम में खुदाके नूरकी झलक है । तलवार एक वस्तुके दो टुकड़े करती है । प्रेम दो टुकड़ो (दो दिलों) को एक करता है । रोगी आदमीको प्रेमका एक शब्द सौ डाक्टरोंसे बढ़कर है । प्रेम मानवताका दूसरा नाम है । एक ही सबक सीखनेकी ज़रूरत है; वह है प्रेमका सबक़ । प्रेम अमीर ग़रीब पर समान प्रभाव डालता है । प्रेम भिखारियों तथा बादशाहों को एक ही आसन पर बिठाता है । प्रेमी आत्मा कभी पागल और सज्जन नहीं देखता वह तो चारो तरफ प्रेम ही प्रेम देखता है ।
सच्चा प्रेम लेना नहीं जानता, वह केवल देना जानता है । सच्चे प्रेम में आशा नहीं होता है । प्रेम निस्वार्थ एवं परोपकारी होता है । परमात्मा के मार्ग में आत्माका आशारहित नि:स्वार्थ प्रेम चाहिए । परमात्मा जिस स्थितिमें रखें, उसी में संतुष्ट रहना है । प्रेम आत्माका स्वभाव है, गुण है । यह हम सब में है इसे ही जाग्रत करना है । यह परमात्माका क़ानून है, श्रीराजजी महाराजजीके आदेशकी परिपूर्णता है । प्यारे सुन्दरसाथजी प्रेम लिखने और बोलनेका विषय नहीं है । यह अद्वितीय चमत्कार है । एक चुम्बकीय आकर्षणके समान है । पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्णजी के आदेश के द्वारा ही यह संसार बनाया गया है । यह हुक्म (आदेश) का ही पसारा है, और यहाँ से वापिस ले जाने वाला भी आदेश ही है । खुदी एवं अहंकार के त्याग का नाम ही समर्पण है । इसी से आत्मिक जागृति सम्भव है ।
संसार की कोई वास्तु सरकता रहे, हानी हो जाये, परमात्माका सच्चा प्रेमी कभी दु:खी नहीं होता है । जो दु:ख में दुखी और उदास रहे तो समझिये वह सच्चा प्रेम से दूर है । धामधनी की अंगना तो संकट में भी मुस्कुराती रहती है । प्रसन्न चित्त रहती है । अपने धनीकी याद में आनन्दित रहती है । वह जानती है कि मैं अकेली नहीं, मेरा प्रियतम मेरे पास हमेशा साथ है । वह पूरे संसार के काम, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान को त्याग देती है, एक अपने प्रियतम धामधनी श्री कृष्णजी पर ही विश्वास रखती है । कुरान शरीफ में कहा है-"जाहिदों का वुजू हाथ पैर और मुँह धोकर होता है" ब्रह्मात्माओंका वुजू दुनिया की ओर से हाथ धोना है" श्री तारतम वाणी में कहा है-
मोमिन कहिए वाको, जो छोड़े चौद तबक ।
मा सिवा अल्ला के, और करें सब तारक ।। (श्री तारतम सागर)
सच्चे प्रेम की यही कसौटी है कि उसके पास से अगर कोई सांसारिक वस्तु छिना जाए , तो उसको इसके प्रति कोई दु:ख नहीं होता है । यदि धामधनी की याद, स्मरण, भजन का समय व्यर्थ चला गया तो गहरा दु:ख होता है । प्रेम को इस स्थिति आने पर आत्मा को प्रेम की झलकें प्राप्त होने लगती है । उसे प्रियतम के सिवाय किसी का ध्यान ही नहीं रहता है । व्यवहार में बनिये या व्यापारी के समान लेन-देन करिए परन्तु प्रेमी आत्मा तो निस्वार्थ सेवा करती है । सब भय तथा डर से दूर हो जाती है । एवं राग द्वैष से रहित हो जाता है ।
अगर परिस्थितियां अनुकूल हो, सब प्रकार के सुख चैन हो तो प्रेम के रास्ते पर चलना आसान है, अच्छा लगता है । परन्तु मामूली सी प्रतिकूल परिस्थितियों में हम डगमगाने लगते हैं । प्रेम के रास्ते पर चलने वाला सच्चा प्रेमी उस समयमें भी डगमगाती है । प्रियतम धामधनी पर तन, मन, धन सब न्योछावर उसी प्रकार उसी श्रद्धाभावसे करता रहता है । वास्तव में वह प्रेम, प्रेम नहीं जो परिस्थितियों के बदलने पर बदल जाये । सच्चा प्रेम एक अटल निशाना है जो मुसीबतों के तूफ़ान आने पर भी नहीं बदला जा सकता है। सच्चा प्रेम अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी परिस्थितिमें बदलता नहीं है । किसी भी परिस्थिति से झुकता नहीं है । वह किसी के मिटाए से मिटता भी नहीं है । सच्चा प्रेम एक निश्चल भाव है जो हर परिस्थितियों तथा तूफानों का सामना करता है । बल्कि विषम परिस्थितियों में सच्चा प्रेम और भी मजबूत हो जाता है । क्योंकि वह प्रेम प्रियतम के लिए हैं । प्रेम एक पवित्र भावना है, हृदय की विशालता है जिसमें बेखुदी (निस्वार्थ) की लहरे उमड़ती हैं । सच्चा प्रेम में बनावटी नहीं होता है, असलियत ही उसका पहिचान होता है ।
सन्तों ने प्रेम को दो प्रकार का कहा है । एक बनावटी या मजाज़ी दूसरा पूर्णब्रह्म परमात्माका (मूल प्रेम) पहला लगाव, मोह इस संसारके मान मर्यादा, पद, धन दौलत व संसार के परिवार व बच्चों से है । यह हमको अनित्य पदार्थों से बांधता है । पूर्णब्रह्म परमात्माका (सच्चा प्रेम) हमें अपने प्रियतम में बांधता है । धामधनी से हमारा मूल सम्बन्ध सदैव से हैं । प्रतेक ब्रह्मात्माओं में परमात्माका प्रेम विद्यमान है । परन्तु माया का आवरण पड़ने के बजह हम उनको देख नहीं सकते हैं । इस आवरण (माया) को दूर करने के लिए तारतम ज्ञान तथा धामधनी के दया की परम आवश्यकता है, तभी माया का आवरण दूर होगा ।
प्रिय सुन्दरसाथजी ! सांसारिक प्रेमको छोड़कर प्रियतमके प्रेम पर कुरबान होना है । अपने अन्तर में धामधनी के प्रेम को भरना है । इस प्रेम के बिना भक्ति केवल पाखण्ड है । इस सच्चे प्रेम के बिना मनुष्य पशु के समान है तथा चौरासी का आवागमन में ही रहता है । श्री कबीर साहेबजी ने कहा है-
जहि घट प्रेम न प्रीति, रस पुनि रसना नहीं नाम ।
ते नर पशु संसार में, उपजी खपे बेकाम ॥
हमारी आत्मा के पास प्रेम का गुप्त खजाना है । आत्मा पर माया का आवरण है माया के सम्पर्क से रहित होते ही सच्चा प्रेम जाग्रत होता है । यही धामधनी की प्रार्थना है जो आठों पहर चलती रहती है । प्रेम और संसार एक जगह नहीं रह सकता "अर्स ल्यों या दुनी, दोऊ पाइये न एक ठौर" प्रेम सब सीमाओं से परे हैं । वहाँ मन बुद्धि के क्षेत्र से अलग होकर ही जाना पड़ता है । यह ब्रह्मात्माओं की प्रेम तीनो गुणों से ऊपर हैं । ब्रह्मात्माओं की प्रेम का ज्ञान पुस्तक में नहीं है । यह स्वत: सिद्ध है, अविनाशी है । अनुभव का विषय है । सच्चा प्रेम आने पर अपने प्रियतम के प्रति विरह पैदा होता है इस विरह की अग्नि में ही सत का बोध छिपा है । सत्य और असत्य का जब ज्ञान हो जाता है तभी पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्ण का दर्शन सम्भव है । परमात्मा का सच्चा प्रेमी वही है जो दूसरों को आनन्दरूप करदे । प्रणाम ।
श्री अर्जुन राज

6/24/2010

भक्तियोग क्या है ?

  भक्तियोग क्या है ?

           यह योग भावनाप्रधान है और प्रेमी प्रकृति वाले व्यक्ति के लिए उपयोगी है. प्रेमी भक्त परमात्मा से प्रेम करना चाहता है और सभी प्रकार के क्रिया-अनुष्ठान, पुष्प, गंध-द्रव्य, सुन्दर मन्दिर और मूर्ती आदि का आश्रय लेता और उपयोग करता है. प्रेम एक आधारभूत एवं सार्वभौम संवेग है. यदि कोई व्याक्ति मृत्यु से डरता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसे अपने जीवन से प्रेम है. यदि कोई व्यक्ति अधिक स्वार्थी है तो इसका तात्पर्य यह है कि उसे स्वार्थ से प्रेम है. किसी व्याक्ति को अपनी पत्नी या पुत्र आदि से विशेष प्रेम हो सकता है. इस प्रकार के प्रेम से भय, घृणा अथवा शोक उत्पन्न होता है. यदि यही प्रेम पूर्णब्रह्म परमात्मा से हो जाय तो वह मुक्तिदाता बन जाता है. ज्यों-ज्यों परमात्मा से लगाव बढ़ता है, नश्वर सांसारिक वस्तुओं से लगाव कम होने लगता है. जब तक मनुष्य स्वार्थयुक्त उद्देश्य को लेकर परमात्मा का भजन करता है तब तक वह भक्तियोग की परिधि में नहीं आता है. परा-प्रेमलक्षणा भक्ति ही भक्तियोग के अन्तर्गत आती है जिसमें परमात्मा को छोड़कर अन्य कोई अभिलाषा नहीं होता है. भक्तियोग शिक्षा देता है कि परमात्मा के साथ शुभ भाव से प्रेम इसलिए करना चाहिए कि ऐसा करने से तन-मन और धन शुद्ध होता है. और ऐसा करना अच्छी बात है, न कि स्वर्ग पाने के लिए अथवा सन्तति, सम्पत्ति या अन्य किसी कामना की पूर्ती के लिए.! भक्तियोग यह सिखाता है कि "प्रेम" का सबसे  बड़ा पुरस्कार "प्रेम" ही है, और प्रेम का पर्यावाची शब्द भी प्रेम ही है, और स्वयं परमात्मा प्रेम स्वरूप है !

            "हे प्रियतम ! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान पदार्थों पर रहती है, उसी प्रकार की प्रीति मेरी आपमें हो, और आप का स्मरण करते हुए मेरे हृदय से आप कभी दूर न होना" ! भक्तियोग सभी प्रकार के संबोधनो द्वारा परमात्मा को अपने हृदय का भक्ति-अर्ध्य प्रदान करना सिखाता है-जैसे, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री राजजी आदि ! सबसे बढ़कर वाक्यांश जो परमात्मा का वर्णन कर सकता है, सबसे बढ़कर कल्पना जिसे मनुष्य का मन परमात्मा के बारे में ग्रहण कर सकता है, वह यह है कि परमात्मा 'प्रेम स्वरूप है' ! जहाँ कहीं प्रेम है, वह परमात्मा ही है. जब माता बच्चे को दूध पिलाती है तो इस वात्सल्य में वह परमात्मा ही है, जब पति पत्नी का चुम्बन करता है तो वहाँ उस चुम्बन में भी परमात्मा ही है ! जब दो मित्र हाथ मिलाता है तब वहाँ भी परमात्मा प्रेममय धामधनी के रूप में विद्यमान है. मानव जाती की सहायता करने में भी परमात्मा के प्रति प्रेम प्रकट होता है. यही भक्तियोग का शिक्षा है !

          भक्तियोग भी आत्मसंयम, अहिंसा, ईमानदारी, निश्छलता आदि गुणों की अपेक्षा भक्त से करता है, क्योंकि चित्त की निर्मलता के बिना नि:स्वार्थ प्रेम सम्भव ही नहीं है. प्रारम्भिक भक्ति के लिए परमात्मा के किसी स्वरूप की कल्पित प्रतिमा या मूर्ती ( जैसे दुर्गा की मूर्ति, शिव की मूर्ति, राम की मूर्ति, श्री कृष्ण की मूर्ति, गणेश की मूर्ति तथा वांग्मय स्वरूप की आदि ) को श्रद्धा का आधार बनाया जाता है. किन्तु साधारण स्तर के लोगों को ही इसकी आवश्यकता पड़ती है. प्रेम का कोई भी स्वरूप नहीं होता ! ओतो सर्वव्यापी है. बिरह सहन न होने के कारण उसको पानेकी आसमें मूर्तिरूप में पूजा करने लगता है. जो भक्तियोग में तल्लीन होकर पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री राजश्यामाजी की लगन में लग जाता है, उन ब्रह्मात्माओं को इन सभी चीजोंका आवश्यकता नहीं होती. ओतो आठों पहर चौसठ घड़ी निश-दिन अपने धामधनी पूर्णब्रह्म परमात्मा के प्रेम में ही मग्न रहता है. ऐसी आत्माओं के लिए तो खाना, पीना, उठना-बैठना आदि सबकुछ उनके ही लिए समरपित समझते हैं. पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत धामधनी श्री कृष्ण तो सदैव अपने भक्तके हृदय-मन्दिर में ही रहते हैं और अपने प्रिय भक्त से निरन्तर प्रेमालाप करते रहते हैं !! प्रणाम !!

श्री अर्जुन राज

6/17/2010

देखत ना हक तरफ:-

देखत ना हक तरफ
रे रूह करे ना कछू अपनी, के तूं उरझी उम्मत मांहें !
उमर गई गुण सिफत में, तोहे अजून इसक आवत नाहें !!
हक सिर पर इन विध खड़े, देखत ना हक तरफ !
जो स्वाद लगे मेहेबूब का, तो मुख ना निकले एक हरफ !!

              महामति श्री प्राणनाथजी अपनी आत्मा से कहते हैं, हे आत्मा ! तूने अपने लिए कुछ भी नहीं किया. तू अपने लिए भी कुछ कर ले. क्या तू केवल अन्य आत्माओं को जागृत करने में ही उलझी रहेगी ? तू तो स्वयं जाग कर अपने प्रियतम परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पित हुई नहीं. तेरी सारी उम्र प्रियतम परमात्मा के गुण गान में ही बीत गई लेकिन अब तक तुम्हारे हृदय में प्रियतम के प्रति अनन्य प्रेम प्रकट नहीं हुआ !

             हे आत्मा ! तेरा प्रियतम तेरे सिर पर सदा सर्वदा निशदिन तेरी सेवामे खड़ा है, फिर भी तू उनकी ओर देखती तक नहीं. यदि अपने प्रियतम परमात्मा के दिव्य प्रेम का तनिक भी स्वाद तुझे लग गया होता, तो तेरे मुख से एक शब्द का भी उच्चारण इस प्रकार नहीं हो पता. क्योंकि जाग्रितात्मा पल भर भी नयनों की पलकें मुंद नहीं सकती और उसके मुख से प्रियतम के प्रेम के सिवा और कोई शब्द उच्चारीत नहीं हो सकता है. प्रियेतम धनी के विरह तो निशदीन पल-पल सताती है. जो आत्मा उनसे एक बार मिल चुकी हो वे भला उनके शिवा कैसे चुप रहपायेगी ! विरहा गत रे जाने सोई जो मिलके विछुरी होए ! ज्यों मीन विछुरी जल थें या गत जाने सोई ! मेरे दुलहा !!

श्री अर्जुन राज
प्रणाम

6/11/2010

महामति प्राणनाथ और प्रेमलक्षणा भक्ति

             महामति श्री प्राणनाथजी ने परमधाम की प्राप्ति एवं धामधनी की कृपा प्राप्ति के लिए ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग के स्थान पर प्रेमलक्षणा भक्ति  को ज्यादा महत्त्व दिया है. नवधा भक्ति से भी श्रेष्ठ प्रेमलक्षणा भक्ति को अक्षरातीत परमधाम तक पहुँचने का मार्ग बताया है. महामति श्री प्राणनाथजी मानते हैं कि प्रेम से बढ़कर इस संसार में कुछ नहीं है. वे अपने श्री मुख से कहते हैं- एही सबद एक उठे अवनी में, नहीं कोई नेह समाना. (किरंतन २३/५)

              महामति श्री प्राणनाथजी कहते हैं कि प्रेमलक्षणा भक्ति के बिना वेद श्री मद्भागवत पुराण, कुरान के गूढ़ार्थों को न समझने वाले लोगों को शान्ति प्राप्त नहीं होती है ऐसा लगता है मानो बहरे को गूँगा समझा जा रहा हो. महामति श्री प्राणनाथजी कहते हैं- प्रेमें गम अगम की करी, प्रेम करी अलख की लाख ! कहें श्री महामति प्रेम समान, तुम दूजा जिन कोई जान !!

           महामति प्रेम को सर्वोपरि मानते हैं. प्रेम के अतिरिक्त सभी साधना पद्धतियाँ व्यर्थ हैं- इसक बड़ा रे सबन में, न कोई इसक समान ! एक तेरे इसक बिना, उड़ गई सब जहान  !!
         
           'प्राणनाथजी के अनुसार पुष्ट, प्रवाह और मर्यादा मार्ग तो अन्य सृष्टियों के लिए है. परमधाम की ब्रह्मसृष्टियों के लिए तो सकाम और निष्काम भक्ति से परे तुरीयातीत अवस्था में गोपीभाव युक्त परा प्रेमलक्षणा भक्ति ही कही जा सकती है- नवधा से न्यारा कह्या, चौदे भवन में नाहीं ! सो प्रेम कहाँ से पाइए, जो बसत गोपिका माहिं !

             प्रेम ही आत्मा को निर्मल करता है, प्रेम ही आचरण को श्रेष्ठ बनाता है. प्रेम ही झुकना सिखाता है, प्रेम ही जगत का सार है ! महामति श्री प्राणनाथजी कहते हैं- उत्पन्न प्रेम पारब्रह्म संग, वाको सुपना हो गयो संसार ! प्रेम बिना सुख पार को नाहीं, जो तुम अनेक करो आचार !! छकियो साथ प्रेम रस मातो, छूटे अंग विकार ! परआतम अंतस्करण उपज्यो, खेले संग आधार !! (किरंतन ८३/९)

             महामति श्री प्राणनाथजी के अनुसार प्रेम ही परमधाम का द्वार है तारतम वाणी में प्रेम को परमधाम की प्राप्ति का सर्वोच्च साधन माना गया है. महामति श्री प्राणनाथजी ने प्रेम की अवधारणा का प्रसार न केवल जीवधारियों तक किया, बल्कि वनस्पति जगत तक प्रेम का प्रसारण किया. इसलिए वे सदा सर्वदा सभी को शीतल नैन एवं मीठे बैन से आत्मवत बनाना चाहते हैं, वे कहते हैं- दुःख न देऊं फूल पांखडी, देखूँ शीतल नैन ! उपजाऊं सुख सबों अंगो, बोलाऊं मीठे बैन !! (कलस २३/४) 

             महामति श्री प्राणनाथजी प्रेम को परमात्मा मानते थे वे कहते हैं कि- 'प्रेम ब्रह्म दोऊ एक हैं' ! प्रेम के लिए चौदह लोक से लेकर परमधाम तक कोई अवरोध नहीं है- प्रेम खोल देवे सब द्वार, पार के पर जो पर ! (परिक्रमा १/२४) 

          पंथ होवे कोट कलप, प्रेम पहोंचावे मिने पलक ! जब आतम प्रेम से लागी, अन्तर दृष्टि तबहीं जागी !! 
            महामति श्री प्राणनाथजी मानते हैं कि प्रेम से ही अन्तरात्माकी शुद्धिकरण होगी तथा प्रेम से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है. वे 'प्रकाश ग्रन्थ अन्तर्गत लिखते हैं- तुम प्रेम सेवाएँ पाओगे पार, ए  वचन धनी कहे निराधार !

           स्पष्ट है महामति श्री प्राणनाथजी ने प्रेम को जीवन का आधार माना है, तो परमधाम का मार्ग भी प्रेम का मार्ग माना है और परमधाम का द्वार भी प्रेम का ही है, वस्तुत: वे प्रेम और ज्ञान की मूर्ती थे. कहा गया है कि-पूरणब्रह्म प्रगट भये, प्रेम सहित लै ज्ञान ! प्रणाम

श्री अर्जुन राज
प्रणाम

6/08/2010

प्रणामी धर्म की मूल परम्परायें:-

प्रणामी धर्म की मूल परम्परायें:-
(१) प्रिय सुन्दरसाथजी हमारा मूल महामंत्र निजनाम श्री कृष्ण जी से शुरू होता है. अत: हमें इसी का जाप करना चाहिये !

(२) आद्य जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ श्री देवचन्द्रजी महाराजको पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्णजीने प्रकट होकर जो तारतम महामंत्र सद्गुरु श्री को दिया था आज भी पूज्य गुरुवार मंत्र देते समय षोडाक्षर तारतम महामंत्र शिष्यों को प्रदान करते हैं !

(३) श्री कृष्ण प्रणामी निजानन्द सम्प्रदायमें अखण्ड परमधाम में रहने वाले पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्णजी, जो सभी के प्राणों के नाथ हैं, उन्हीं श्री कृष्णजी के हम ध्यान करते हैं. अत: उन्हीं श्री कृष्ण प्यारे का सर्व प्रथम हमें जयकारा लगाना चाहिय !

(४) आद्यधर्मपिठाधिस्वर पूज्यपाद  जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ श्री देवचन्द्रजी महाराज ने वि. सं. १६८७ कार्तिक मास में आद्यधर्मपिठका स्थापना किया है, तभी से अखिल प्रणामी जनता इसे अपना मूल धर्म स्थान मानती है. श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर !

(५) श्री ५ नवतनपुरी धाम में श्री राजश्यमाजी की सेवापूजा निम्न अनुसार किया जाता है. प्रात: ५.१५ मे मंगल (दर्शन) आरती. ९. बजे सिनगार आरती, ११. बजे राजभोग आरती, दोपहर ३ बजे उठापन तथा बाल भोग, साम ७. बजे संध्या आरती, रात को ८.३० में निरत सत्संग तथा ९. बजे सयन आरती और श्री राजश्यमाजी कि पौढ़ावानी अर्थात सयन- चुन-चुन कालिया में सेज बिछाऊं, बंगलन फूल भराऊं, सेज सुरंगी पर पियाजी पौढ़ाऊं, करसे बीड़ी आरोगाऊं !

(६) श्री कृष्ण प्रणामी (निनानन्द) सम्प्रदाय का स्थापना ४२७ वर्ष पूर्व आद्य जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ श्री देवचन्द्रजी महाराज ने किया तथा उन्होंने ही पाताल से लेकर परमधाम तक का खुलासा किया तथा पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत धनी का पहिचान समस्त मानव जाती को करवाया !

(७) उसी परम्परा को कायम रखने वाले श्री कृष्ण प्रणामी (निजानन्द) सम्प्रदाय का वर्तमान जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ श्री कृष्णमणिजी महाराज है जो भारत वर्ष के गुजरात राज्य के जामनगर सहर  स्थित आद्यधर्मपिठ श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर मे विराजमान है ! प्रणाम

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श्री अर्जुन राज

5/26/2010

कयामतनामा महात्म्य:-

क़यामतनामामें :-
सामान्य जीवोंका विवरण है तो दूसरे प्रकरणमें पयगाम्बरोंका विवरण है. बड़े कयामतनामामें २४ प्रकरण एवं कुल ५३१ चौपाइयाँ हैं. महामतिने इसे छत्रसालको आशीर्वादके रूपमें प्रदान किया था इसलिए प्रकरणके अन्तमें छत्ता अथवा छत्रसाल नाम आता है. इसी उपदेश शैलीमें भी थोड़ासा अन्तर है किन्तु सीधा और स्पष्ट कथन हैं. महामति इस ग्रंथके द्वारा क़यामतके आगमनकी बात करते हैं. सामान्यतया क़यामतका अर्थ होता है ले अथवा प्रलय. इस समयके सात संकेत भी कुरानमें बताए गए हैं. जिनको क़यामतके सात निशान कहा जता है. जैसे कि इस्राफीलके बिगुलकी आवाज सुनते ही कब्रमें-से मूर्दोंका उठना,  दाभातुल अर्जका पैदा होना आदि आदि. महामतिने कहा, इतनें वर्ष बीत गए हैं अभी तक कब्रमें से मुर्दे नहीं उठे हैं, रसूलके वचन तो झूठे नहीं है किन्तु हम उनका ठीक अर्थ समझ नहीं पाए हैं. महामतिने इस विषयमें कहा, ब्रह्मज्ञान सुनते ही आत्मामें जागृति आएगी, शरीररूप कब्रमें सोई हुई चेतना ज्ञानकी अवाज सुनते ही जागृत हो जाएगी. जागृत आत्माके लिए संसार अस्तित्वहीन हो जाता है. इसलिए क़यामतका अर्थ मात्र लय नहीं अपितु आत्म जागृति है. जागृत आत्माएँ संसारको नहीं देखती हैं वे तो अपने धनीके प्रेममें मस्त रहती हैं 'ओ खेले प्रेमें पार पियासों, देखनको तन सागर माहिं' ! की भाँती उनकी स्थिति होती है. महामतिने कुरानके विविध सिपारे एवं आयातोंका प्रमाण देकर अनेक प्रसंगोंका उल्लेख कर क़यामतकी स्पष्टता की है !
इस ग्रन्थमें क़यामतके साथ वेद एवं कतेब ग्रन्थ ब्रह्मात्माओंके लिए एक ही परमात्माका सन्देश डे रहे हैं इस बातकी स्पष्टता की है. ब्रह्मात्माओंका अवतरण उनके लिए तारतम ज्ञानका अवतरण एवं इसके द्वारा आत्म जाग्रितिका रहस्य स्पष्ट किया है. प्रत्येक बातकी पुष्टि कुरानकी आयातोंके द्वारा की है. तारीखनामाके द्वारा तो उन्होंने और स्पष्टता कर दी है कि कतेब ग्रंथोंमें क़यामतकी जिस घडीकी चर्चा है वह घड़ी आ गई है. इस प्रकार महामतिने एक एक उदाहरण देकर क़यामतकी बात स्पष्ट की है. इसीलिए यह ग्रन्थ क़यामतनामा कहलाया. आशा है सुज्ञजन इन ग्रन्थोंका लाभ अवश्य लेंगे ! प्रणाम !!

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
प्रणाम

5/23/2010

मारफत सागर महात्म्य:-

श्री मारफत सागर एवं क़यामतनामा ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरके क्रमश: त्रयोदश एवं चतुर्दश ग्रन्थ हैं !
मारफत सागर:-
मरिफतका अर्थ पूर्ण पहचान होता है, इसीसे इस ग्रन्थका नाम मारफत सागर पड़ा, इसमें चौदह प्रकरण एवं १०३४ चौपाइयाँ हैं, यद्यपि यह ग्रन्थ कयामतनामासे पश्चात् अवतरित हुआ है तथापि जिल्द बनाते हुए इसे क्यामतनामासे पूर्व रखा गया. महामतिने देह छोडनेसे पूर्व सन्त केशवदासजीके इस ग्रंथके प्रकरणोंका सम्पादन एवं पूरी वाणी तारतम सागर ग्रंथके सकलनका दायित्व सौपा था. इस ग्रंथके आरंभ एवं समापन पर मसौदाके द्वारा उन्होंने इस कार्यको पूर्ण करनेका साकेत दिया है.
             ग्रंथारंभमें परमधाम मूलमिलावेकी परिचर्चाके द्वारा ब्रह्मात्माओंका अवतरण, प्रेमका महत्त्व, श्रीराजजीकी सर्वमूलता  आदि स्पष्ट कि है. दूसरे प्रकरणमें ब्रह्मात्माओंकी जागृतिके लिए अवतरित तारतम ज्ञानका रहस्य स्पष्ट किया. तदनन्तर रसूलके अनुयायियोंका विभाजन, न्यायकी रीत, कुरानके गूढ़ संकेतोंका रहस्य, तीन प्रकारकी सृष्टिके मनोभाव, आचरण, तीन फरिस्तोंका विवरण, न्यायका विवरण, रसूलकी भविष्यवाणी, उनके द्वारा परमात्मासे की गई प्रार्थनाका उल्लेख है. कयामतके समय पर दिखने वाले संकेतोंका उल्लेख रसूल मुहम्मदने पहले ही कर दिया था जिसका सकलन कुरान एवं हदीस ग्रंथोमें है उसका रहस्य महामतिने यहाँ पर स्पष्ट किया है. कुरानके अनेक रहस्य आज भी अनुत्तरित माने जाते हैं उनका स्पष्टीकरण महामतिने आजसे ३५० वर्ष पूर्व कर दिया था किन्तु बाह्यकर्मको प्राधान्य देनेवाले लोग आज भी उस पर विचार नहीं करते. कुछ विद्वान महामतिके इन स्पष्टीकरणोंसे प्रभावित तो अवश्य होते हैं किन्तु उनके स्वीकार करनेमें उन्हें भी भय होता है !
              महामतिने इस ग्रन्थमें भारतवर्षमें लहराते हुए धर्मध्वजका विवरण दिया है, साथमें यह स्पष्टता कि की अब बह्यकर्मकाण्डका ध्वज अपने मूलसे हट गया है. खालीफोंके द्वारा पूछे जाने पर रसूल मुहम्मदने कहा था कि कलका दिन क़यामत (फरदा रोज क्यामत) है. महामतिने यहाँ पर उसका भी स्पष्टीकरण किया है. रसूल मुहम्मदने कहा था कि क़यामतके समय मेरे भाई आएँगे तब मैं भी उनके साथ आऊंगा. महामतिने इस समूहको ब्रह्मात्मओंका समूह कहा है. इस प्रकार मारफत सागरमें कुरानके अनेक रहस्य स्पष्ट किए गए हैं. तारतमज्ञानके द्वारा ही यह संभव हुआ है इसलिए ब्रह्मज्ञान (इलाम लुन्दनी) तारतम ज्ञानके द्वारा होनेवाले अनुभव अथवा पूर्ण पहचानको मारिफत कहा है. प्रणाम !!

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
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5/18/2010

सिन्धी ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री सिन्धी ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका द्वादश ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !सिन्धी भाषामें होनेसे इस ग्रन्थका नाम श्री सिन्धी रखा गया है ! वास्तवमें इसमें आत्म जाग्रितिका आह्वान तथा विरहिनी आत्माकी पुकार है. इसका अवतरण वि.सं. १७४० से ४८ के मध्यका समय माना गया है. इसमें १३ प्रकरण एवं ५२४ चौपाइयाँ हैं और अन्तिम तीन प्रकरणोंका हिन्दी अनुवाद होनेसे तीन प्रकरण एवं ७६ चौपाइयाँ हिन्दी भाषामें हैं. इस प्रकरण कुल १६ प्रकरण एवं 600 चौपाइयाँ हैं ! प्रथम चौपाई आत्म-जाग्रितिका आह्वान करती है !
आखर वेरा उथणजी, आंई रूहें छड़े जा रांद !
उठी बीच अरसजे, कोड़ करे मिंडू कांध !! 
अर्थात हे आत्मा ! यह आत्म-जाग्रितिका अवसर है. इसलिए अज्ञानकी नीन्दमें-से जागृत होकर हर्ष एवं उमंगके साथ परम धाममें उठो और अपने प्रियतम धनीसे मिलो !
इसी प्रकार दूसरी चौपाइमें उपालम्भके द्वारा विरहकी पराकाष्ठा व्याक्त होती है !
आंऊं धनीयाणी तोहिजीं, डे तूं मूं जी रे अंग !
मूं मुंए जे डिए, हे कड़ी निसबत संग !! 
हे धनी ! मैं आपकी धनीयानी हूँ, आप मुझे इसी शरीरमें रहते हुए दर्शन दें ! यदि  देह छूट जाने पर दर्शन देंगे तो आपके साथ मेरा सम्बन्ध ही कैसा ? विरहिणी आत्मा इसी शरीरके द्वारा अपने प्रियतम धनीसे मिलना चाहती है. उसे पियाके दर्शनके अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए. अनेक स्थलों पर महामतिने विरहके साथ प्रार्थना, उपालम्भ भी दिए हैं. सर्वत्र श्री राजजीके आदेशकी प्राधान्यता एवं भूमिका बताई गई है. ब्रह्मात्माएँ श्री राजजीके ही अंग होने से उन्हें मायामें आने पर भी अपने प्रियतम धनीको भूलना नहीं चाहिए  ! देहाध्यासके कारण उन्हें अपने प्रियतम धनीकी पहचान नहीं हो रही है इसलिए दैहिक अहंकारको पहचान कर उसे त्याग दें और श्री राजजीके आदेशका महत्त्व समझ कर उसके अनुरूप कार्यं करें. वास्तवमें ब्रह्मात्माएँ श्री राजजीके चरणोंमें ही रहकर अपनी सुरता के द्वारा ही ऐसा सम्भव हुआ है. इस प्रकार अन्तमें श्री राजजीके आदेशका महत्त्व समझकर यह ग्रन्थ पूर्ण होता है !

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
प्रणाम

5/13/2010

सिनगार ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री सिनगार ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका ग्यारहवाँ ग्रन्थ है. विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
श्री सिनगार ग्रन्थकी भाषा हिन्दी है. इसका अवतरण वि.सं. १७४० से १७४८ के मध्य पद्मावतीपुरी पन्नामें हुआ है. इसमें कुल २९ प्रकरण एवं २२११ चौपाइयाँ हैं. इसमें श्रीराजजीके श्रृंगारका विशद वर्णन है. यद्यपि सागर ग्रन्थमें श्रीराजजी, श्यामजी एवं ब्रह्मात्माओंकी शोभा एवं श्रृंगारका वर्णन हुआ है किन्तु इस ग्रन्थमें श्रृंगारका विशद वर्णन होनेसे इसे महा-सिनगार भी कहा गया है !
महामति श्री प्राणनाथजीको सद्गुरुने श्रीराजजीका स्वरूप एवं श्रृंगार विस्तार पूर्वक समझाया था. तदन्तर महामतिने जो अनुभव किया उसका वे विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं. वे आरंभ में ही कहते हैं कि श्री राजजीके आदेशने ही यह वर्णन किया है. प्रथम प्रकरणमें मंगलाचरणके द्वारा परमधाम एवं धामधनीका महत्त्व समझाया. दूसरे प्रकरणके द्वारा यह स्पष्ट किया कि प्रेमका द्वार खुलने पर ही यह वर्णन संभव हुआ है और प्रेमका द्वार श्रीराजजीके आदेश (हुकुम) के द्वारा ही खुला है !
तीसरे प्रकरणसे श्री राजजीके अंगोंका वर्णन आरंभ होता है. सर्व प्रथम श्रीराजजीके चरणोंका वर्णन है. श्रीराजजीके चरणोंका स्मरण ही आत्माको अज्ञानरूपी नींदसे जागृत कर सकता है. इसलिए पाँचवें प्रकरणसे चरणोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है. चरनोंके नखसे लेकर ऊपरकी शोभा ब्रह्मात्माओंको अपने धनीके साथका सम्बन्ध स्पष्ट करती है. जिन आत्माओंको अपने धनीके साथके सम्बन्धकी पहचान है वे इस चरणोंको कभी भी भूल नहीं सकती. वे इन्हीं चरणोंका स्मरण करती हुई परमधाम-पच्चीस पक्षोंका भ्रमण करती है !
इस ग्रन्थमें श्रीराजजीके वस्त्र एवं आभूषणोंकी शोभाका भी विशद वर्णन है. साथमें यह भी स्वष्ट किया है कि वस्त्र एवं आभूषण श्रीराजजीकी शोभा अवश्य बढाते हैं जिनको देखती हुई आत्मा पल मात्रके किए भी अपनी दृष्टि उनसे दूर नहीं कर सकती. इस प्रकार श्रीराजजीके एक एक अंगका वर्णन करते हुए उनकी रसनाका महत्त्व समझाया है. उनके वस्त्र और आभूषणोंका वर्णन कर यह भी स्पष्ट किया कि यह वर्णन तो मात्र संकेत है. वास्तवमें श्रीराजजीके स्वरूप एवं श्रृंगारका वर्णन होना ही कठिन है. किन्तु ब्रह्मात्माएँ इनका स्मरण कर जाग्रत हो सकती हैं इसलिए इनका वर्णन किया गया है.
अन्तमें श्रीराजजीने ब्रह्मात्माओंको कैसी शोभा और सम्पदा प्रदान की है उसका विवरण दिया है. इन प्रकरणोंका मनन करनेसे पता चलता है कि प्रियतम परमात्माकी कृपा ब्रह्मात्माओं पर किस प्रकार बरसती है. इस प्रकार सिनगार ग्रन्थ मात्र वर्णनात्मक ही नहीं अपितु जागनीके लिए भी प्रेरक है.
वरनन करो रे रूहजी, हकें तुम सिर दिया भार !
अरस किया अपने दिल को, माहें बैठाओ कर सिनगार !!

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
प्रणाम

5/12/2010

सागर ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री सागर ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका दशम ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
सागरका अर्थ समुद्र अथवा सिन्धु होता है. इसे नापा-तौला नहीं जा सकता. महामतिने श्री राजजी, श्यामजी एवं ब्रह्मात्माओंके स्वरूप, शोभा, सम्बन्ध आदिको सागरकी भाँति अपरिमेय बताते हुए इनके लिए सागर शब्दका प्रयोग किया है ! उन्होंने श्री परिक्रमा ग्रन्थमें परमधामके आठ सागारोंका वर्णन किया है ये ब्रह्मानन्दरसके सागर हैं. इन्हीं सागरोंकी भाँति मूलमिलावावेकी विविध शोभाओंको भी सागरकी उपमा दी गई है. इस ग्रन्थमें १५ प्रकरण एवं ११२८ चौपाईयाँ हैं !
प्रथम सागर नूर सागर है. नूरका अर्थ होता है प्रकाश. इसमें मूलमिलावेकी शोभा, श्री राजश्यमाजी एवं ब्रह्मात्माओंकी बैठक, उनकी शोभा एवं श्रृंगारका वर्णन है. सर्वत्र इनका ही प्रकाश छाया हुआ दिखाई देता है. दूसरा सागर है ब्रह्मात्माओंकी शोभाका ! ब्रह्मात्माएँ खेल देखनेकी चाह मनमें लेकर उमंग एवं भयके साथ एक दूसरेसे मिलकर बैठी हैं ! वे कभी भी इसप्रकार नहीं बैठीं थीं 'अतंत शोभा लेत हैं, कबूं ना बैठियां यों कर !' तीसरा सागर एक दिलीका अर्थात ब्रह्मात्माओंके एकात्मभावका है. इसका तात्पर्य है कि सभीका भाव एक है और सभी एक समान सुखका अनुभव करती हैं. चौथा सागर युगलकिशोर श्री राजश्यमजीके श्रृंगारका है. महामतिने श्री राजजीके स्वरूप एवं श्रृंगार- वस्त्राभूषणकी शोभाका वर्णन तीन बार किया है. और श्री श्यामजी एवं ब्रह्मात्माओंकी शोभा एवं श्रृंगारका वर्णन क्रमश: दो एवं एक बार किया है. मूलमिलावेकी शोभा ही अनुपम है. उसमें भी सिंहासनपर विराजमान श्रीराजश्यामाजी एवं चबूतरेपर बैठी हुई ब्रह्मात्माओंकी शोभा तो साक्षात शब्दातीत है. पाँचवाँ सागर प्रेम (इश्क) का है. श्री राजजी श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंका प्रेम वर्णनातीत है. आत्मा तागृत होनेपर इसका अनुभव कर सकती है. छठ्ठा सागर ब्रह्मज्ञान (खुदाई इल्म) का है. तारतम ज्ञान ब्रह्मज्ञान है. श्री राजजीके आदेशसे ही इसका अवतरण हुआ है. इसी ज्ञानके द्वारा श्री राजजी श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंके सम्बन्धका अनुभव हो सकता है. सातवाँ सागर सम्बन्ध (निसवत) का है. श्री राजजी श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंका सम्बन्ध शाश्वत है. परमधाममें यह सम्बन्ध सदैव है. नश्वर जगतमें आनेपर ब्रह्मात्माएँ इसे भूल गई. श्री राजजीने अपनी आत्माओंको ब्रह्मधाम परमधामके सुखोंका महत्त्व समझानेके लिए उन्हें तीनों  बार जगतका खेल दिखाया और वे स्वयं भी रहस्यको समझ पाएँगी और श्री राजजी एवं श्यामाजीके साथाके सम्बन्धकी पहचान कर पाएँगी !
आठवाँ सागर कृपा (मेहेर) का है. श्री राजजी स्वयं कृपासिन्धु हैं. उनकी कृपाका कोई पारावार नहीं है. उन्होंने धाम, व्रज, रास एवं जागनी इन चारों लीलाओंके द्वारा ब्रह्मात्माओंको अपनी कृपाका अनुभव करवाया है. ब्रह्मात्माओंपर उनकी कृपा पल पल बरसती है !
इस प्रकार मूलमिलावा (मूल बैठक) के आठ सागरोंके द्वारा महामतिने अक्षरातीतकी शोभा, स्वरूप, श्रृंगार, कृपा आदि सभीको अपरिमेय (शब्दातीत)  बताया है !! 
बात बड़ी है मेहेर की, हक के दिल का प्यार !
सो जाने दिल हक का, या मेहेर जाने मेहेर को सुमार !!

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
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5/10/2010

परिक्रमा ग्रन्थ महात्म्य:-

श्री परिक्रमा ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका नवम ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
परिक्रमाका अर्थ प्रदक्षिणा होता है. महामति ह्सिर प्राणनाथजीने परमधामके पच्चीस पक्षोंका परिक्रमण करते हुए उनके विशद वर्णन युक्त ग्रन्थका नाम परिक्रमा रखा. यह ग्रन्थ महामतिकी कृति श्री तारतम सागर महाग्रन्थका सबसे बड़ा ग्रन्थ है. इसमें कुल ४३ प्रकरण एवं २४८१ चौपाइयाँ हैं और भाषा सरल हिन्दी है. इसका अवतरण वि.सं. १७४० से १७४८ तक का समय माना गया है !
परमात्माके नाम, स्वरूप, लीला, येश्वर्या, गुण, प्रेम, दया एवं धामके विषयमें बिभिन्न शास्त्रोंमें उल्लेख अवश्य है किन्तु उनका विशद वर्णन कहीं भी नहीं है. महामतिने लगभग छ: हजार चौपाइयोंमें इनका विशद वर्णन किया है. उनमें लगभग २५०० चौपाइयाँ युक्त परिक्रमा ग्रन्थमें मात्र परमधामका वर्णन है.
यह सर्वविदित है कि परमात्मा एवं उनके धामका अनुभव मात्र प्रेमके द्वारा ही संभव है. इसीलिए परमधामका वर्णन आरम्भ करनेसे पूर्व महामति प्रेमका वर्णन करते हैं.
अब कहूं रे इसक की बात, इसक सबदातीत साख्यात !
जो कदी आवे मिने सबद, तो चौदे तबक करे रद !! परिक्रमा.१ चौ. १
ब्रमात्माएँ परमधामका प्रेम लेकर इस जगतमें अवतरित हुई हैं ! इसी प्रेमके द्वारा वे नश्वर जगतमें रहते हुए  भी अपने धनी और धामका अनुभव कर पाएँगी. ग्रन्थमें मंगलाचरणके पश्चात् परमधामके संक्षिप्त वर्णनके साथ श्री राजजीकी अष्ट-प्रहारकी चर्चाका वर्णन है. प्रेम प्रकट होनेका उपाय समझाते हुए रंग भवनके चारों ओरके वन-उपवन एवं वहाँकी लीलाके समय श्री राजजीके स्वरूप और श्रृंगारका वर्णन है. तदन्तर यमुनाजीके तटपर स्थित सात घाट, कुंज-निकुंज वन, हौजकोसर ताल, उसके घाट, टापू, महल, फूलबाग, नूरबाग, लाल चबूतरा, ताड़वन, बडावन आदिके वर्णनके साथ पुष्पराग गिरि, वहांके महल, यमुनाजीका उद्गम प्रवाह, दोनों किनारोके दृश्य, दोनों पुल, उसके महल, रंगमहल, ताल नहरें, माणिक्य पर्वत पशुपक्षियोंका प्रेम तथा परमधामके विविध दृष्योंका वर्णन एकसे अधिक बार हुआ है. !
इस प्रकार २९ प्रकरण पर्यन्त धाम-वर्णन कर महामति कहते हैं, सद्गुरुने मुझे जिस प्रकार परमधामके दर्शन करवाए हैं अभीतक उसीके अनुरूप वर्णन हुआ है, अब आगे अपनी अनुभूतीके आधारपर वर्णन करने जा रहा हूँ ! ऐसा कहकर उन्होंने पुन: धामका वर्णन आरम्भ किया. सर्वप्रथम रंगभवनके सम्मुख एवं पार्श्ववर्ती दृश्योंका संक्षिप्त वर्णन कर रंगभवनकी दशों भूमिकाएँ एवं वहांकी लीलाओंका वर्णन किया. तदन्तर परमधामकी सम्पदा, मूलमिलावेके वार्तालाप रंग भवनके बाह्य दृश्य, नूरकी परिक्रमा, दशों भूमिकाओंका वर्णन, रंगभवनका पुन: संक्षिप्त वर्णन, प्रेमका महत्त्व, आदिका वर्णन कर महामति कहते हैं, ब्रह्मज्ञानसे जागृत होकर प्रेमपूर्वक ब्रह्मधामका अनुभव करें !
परिक्रमा ग्रन्थमें, सर्वत्र ब्रह्मधामके विविध दृष्योंका वर्णन है, साथमें धामकी लीलाएँ भी बतायी हैं. इनके हृदयंगमको धामकी चितावनी कहा है !!

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5/09/2010

खिलवत ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री खिलवत ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका अष्टम ग्रन्थ है. विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
खिलवत (खिल्बत) का अर्थ होता है एकान्त मिलन. आत्मा और परमात्माके एकान्त मिलनको महामतिने खिलवत कहा है और एकान्त मिलन सम्बन्धी चर्चायुक्त ग्रन्थका नाम भी श्री खिलवत रखा. यह ग्रन्थ सरल हिन्दीमें है. इस ग्रन्थ का अवतरण वि.सं. १७४० से १७४८ का समय माना गया है. इसमें कुल १६ प्रकरण एवं १०७४ चौपाइयाँ हैं. प्रथम प्रकरण प्रार्थनाका है.
ऐसा खेल देखाइया, मांग लिया है हम !
अब कैसे अरज करूं, कहोगे मांग्या तुम !!
कछू आस न राखी आसरो, ए झूठी जिमी देखाए !
ऐसी जुदागी कर दई, कछू कह्यो सुन्यो न जाए !!
ब्रह्मात्माएँ नश्वर जगतका खेल देखनेके लिए अवतरित हुई हैं किन्तु जगतके प्रपन्चमें भूल कर भौतिक दुखसुखोंका अनुभव कर रही हैं. तारतम ज्ञानसे जाग्रत होने पर उन्हें पता चला कि उन्होंने नश्वर जगतका खेल देखनेके लिए श्री राजजीसे मांग की थी अब वे श्री धामधनीसे खेलकी शिकायत कैसे करेंगी वे अपनी उलझनोंके साथ श्री राजजीसे प्रार्थना करती हैं.
धनी एती भी आसा ना रही, जो करूं तुमसों बात !
ना बात तुमरी सुन सकों, ना देखूं तुमें साख्यात !!
श्री महामतिने यहाँ पर उनकी प्रार्थनाको वाचा दी है. तदन्तर श्री राजजीके सानिध्यकी अनुभूतीके लिए मुख्य बाधक अहंकार 'मैं पन' को दूर करनेका उपाय समझाया-
मार्या कह्या काढ्या कह्या, और कह्या हो जुदा !
एही हैं खुदी टले, तब बाकी रह्या खुदा !!
पेहेले पी तूं सरबत मौत का, कर तेहेकीक मुकरर !
एक जरा जिन सक रखे, पीछे रहो जीवत या मर !!
पन्चरोसनीके पांच प्रकरणोंमें परमधामके रहस्य एवं ब्रह्मात्माओंका पारस्परिक संवाद, श्री राजजीकी सर्वोपरिता,- ए सुख सबदातीत के, क्यों कर आवें जुबान !
बाले थें बुढापन लग, मेरे सिर पर खड़े सुभान !!
एक पातसाही अरस की, और वाहेदत का इसक !
सो देखलावने रूहों को, पेहेले दिल में लिया हक !!
बताया है तथा ब्रह्मात्माओंको जागृत करनेके लिए श्री राजजी द्वारा श्यामजीको सद्गुरुके रूपमें भेजनेका प्रसंग, परमधामके गूढ़ रहस्य एवं श्री राजजी ब्रह्मात्माओं पर किस प्रकार कृपा करते हैं उसका रहस्य स्पष्ट किया है !
इस ग्रन्थमें आत्मा और परमात्माका सम्बन्ध खेलका रहस्य एवं श्री राजजी एवं परमधामकी सर्वोपरिताको संवादके माध्यमसे है. इस ग्रन्थका पाठ करते हुए 'हम श्री राजजीसे बात कर रहे हैं' ऐसा अनुभव होता है !

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5/07/2010

खुलासा ग्रन्थ महात्म्य:-

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श्री खुलासा ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका सप्तम ग्रन्थ (कुलजम स्वरूप का सातवाँ ग्रन्थ-स्कंध है. कुलजम-दरिया जैसे सभी नदीयाँ (दरिया) में आकर समाहित होती है. एसेही कुलजम स्वरूप में वेद, पुराण, उपनिषद् एसेही कुरान-पुराण का समीकरण) है. इसमें कुल १८ प्रकरण एवं १०२० चौपाइयाँ हैं ! इसकी भाषा हिन्दी है साथमें अरबी एवं फारसीके शब्द भी यथास्थान प्रयुक्त हैं. इसका अवतरण काल वि.सं. १७३८ से १७४३ पर्यन्त माना गया है
महामति श्री प्राणनाथजी धर्म प्रचार यात्रामें रामनगर पहुँचे थे. उस समय औरंगजेब द्वारा भेजे गए पुरदल खान एवं शेख खिदर स्वामीजी से मिलाने आए ! महामतिने उनको कुरान एवं पुराणके विभिन्न प्रसंगोंकी साम्यताकी बात समझायी और कहा, सभी धर्मग्रन्थ एक ही परमतत्त्वकी बात करते हैं, मात्र भाषा और शैलीमें अन्तर है ! खुदा, अल्लाह या ब्रह्म ये सभी शब्द एक ही परमात्माके लिए प्रयुक्त हैं ! कतेब ग्रंथोंमें परमतत्त्वके लिए जो बात कही है वैसी ही बात वैदिक ग्रंथोंमें कही गयी है ! वास्तवमें हिन्दू या मुसलमान सभी एक ही परमात्माकी सन्तानें हैं किन्तु धर्मके मर्मको समझे बिना परस्पर लड़ाई करते हैं-
जो कछु कह्य कतेबने, सोई कह्या वेद !
दोउ वन्दे एक साहेबके, पर लदत बिना पाए भेव !!
बासरी मालकी और हकी, लिखी महंमद तीन सूरत !
होसी हक दीदार सबन को, करसी महंमद सिफायत !!
कुरान आदि कतेब ग्रंथोंमें वैकुण्ठको मलकूत, अक्षरब्रह्मको नूर जलाल तथा अक्षरातीतको नूर जमाल कहा है ! इसी प्रकार ब्रह्मसृष्टिके लिए मोमिन, कुमारिकाओंके लिए फिरस्ते, अक्षरधामके लिए सदरतुलमुंतहा, परमधामके लिए अरस अजीम, श्यामाजीके लिए रूह अल्लाह, श्री कृष्णजीके लिए मुहम्मद, बुद्धाजीके लिए इस्राफिल, विजयाभिनन्दके लिए इमाम, ब्रह्मा-विष्णु एवं महेशके लिए क्रमश: मेकाइल, अजाजील एवं अजराइल आदि शब्दोंका प्रयोग हुआ है. श्रीमद्भागवतमें वर्णित वसुदेवकी कथा नूह पैगम्बरकी कथासे मिलाती है. गोवर्धन लीला कोहतूर तूफ़ान तथा योगमायाकी लीला किस्ती और बागके प्रसंगसे सामी हैं ! इस प्रकार नाम और भाषामें ही अन्तर है किन्तु भाव सबका एक है !
महामती श्री प्राणनाथजीने इस ग्रंथके द्वारा सर्वधर्म समभावकी आधारशीला रखी है ! वस्तुत: सभी धर्मावलम्बी एक दूसरेके मत एवं धर्मग्रन्थोंको आदर देने लगेंगे एवं एक दूसरेसे अच्छाइयाँ ग्रहण करने लगेंगे तो धर्मके नाम पर फैला रही वैमनष्यता दूर होगी. मानव मानवमें प्यार होगा और धर्मके नाम पर हो रहे अत्याचार रुक जाएँगे. वर्तमान समयमें महामतिके विचार एवं कार्य अत्याधिक सान्दर्भिक सिद्ध होते हैं !!

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5/06/2010

किरन्तन ग्रन्थ महात्म्य:-

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श्री किरन्तन ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रंथ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका षष्ठ ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
विभिन्न रागयुक्त गेय पदावलिके कारण इसका नाम कीर्तन (किरन्तन) रखा गया है. इसमें कुल १३३ प्रकरण तथा २१०२ चौपाइयाँ हैं. इसकी भाषा हिन्दी है तथापि इसमें गुजराती भाषामें पच्चीस प्रकरण तथा सिन्धींमें एक प्रकरण है.
इस ग्रंथमें अधिकांश चौपाइयाँ हिन्दी भाषामें हैं तथापि पुरानी भाषा तथा वेदान्त दर्शन परक प्रसंगोंके कारण यह दुरूह रहा है. यह ग्रन्थ महामति प्राणनाथजीकी जगानी यात्राके समय निष्पक्ष दृष्टिकोणसे किए हुए सत्यके साक्षात्कारका परीक्षण एवं निरूपणका सन्कलन है. इसीलिए किरन्तनको सर्वदेशीय कहा गया है. मानव मूल्योंको जीवन्त बनानेके लिए एवं अन्तर निहित चेतनाको प्रस्फुटित करनेके लिए महामतिने इस ग्रंथके अनेक प्रकरणोंमें अपनी स्पष्ट एवं निर्भिक प्रतिक्रिया व्यक्त करनेमें लेशमात्र भी न्यूनता नहीं राखी है. इसी प्रकार समाजमें प्रचलित रूढ़ियों, जातिप्रथा, कुरीति, अंध विश्वास, सांप्रदायिक कट्टरता, बाह्य आचरण एवं कर्मकाण्डके प्रति भी उनका प्रहार समयोचित रहा है.
उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा कि परमात्मा क्षर, अक्षरसे परे अक्षरातीत हैं; वे ही विश्व-ब्रह्माण्डोंके परमाधिपति हैं; उनको शास्त्रोमें "अक्षरात परत: पर:" , "उत्तम: पुरुषस्त्वन्य" , "एकं सत" , "एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म", "सत्यं परं धीमहि" आदिके द्वारा अक्षरातीत, उत्तमपुरुष, परम सत्य, परम ध्येय तथा एक कहा है. इन्हीं पूर्णब्रह्म परमात्माके साथ हमारी आत्माका सम्बन्ध है. अपने अंत:करणको पवित्र बनाने पर इस सम्बन्धकी पहचान होगी. इसलिए साधन, ज्ञान या भक्तिके द्वारा अंत:करणको पवित्र बना कर स्वयं (आत्मा) की पहचान कर लेनी चाहिए. किरन्तनकी प्रथम चौपाई-
पहेले आप पहचानो रे साधो, पहले आप पहेचानो !
बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो !!
इसी तथ्यको स्पष्ट करती है. इस प्रकार महामति प्राणनाथजीने बड़ी सरलतासे दार्शनिक तत्वोंका निरूपण करते हुए तत्वचिन्तनकी पराकाष्ठा स्पष्ट की है. इसके साथ-साथ मानव जीवनकी उपादेयताको स्पष्ट करते हुए पुराने किरन्तनके द्वारा धर्ममय जीवन जीनेकी कलाका निर्देशन दिया है.
चरचा कथा ता तेहने कहिए, जे आप रुए रोवरावे !
दिन दिन त्रास वधतो जाए, ते वंध रदेनां छोडावे !!
ए रे अर्थ मांहे छे अजवालुं, जो कोय जोसे रे विचारी !
रुदया मांहे थासे प्रकास, ज्यारे जागसे जीव संभारी !!
साध ओलखासे वचने, आने करसे समागम !
साध वाणी साध एम ओचारे, संगत छे साध रतन !!
तत्त्वज्ञान, गेय पदावली एवं व्यावहारिक उपदेशोंकी प्रचुरताके कारण 'किरन्तन' ग्रन्थ अत्यधिक लोकप्रिय है. आशा है सुधी पाठकवृन्द इसका अध्ययन एवं मनन कर अपने जीवनको धन्य बनाएँगे.

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