मानव के सभी प्रयास, उसकी भाग दौड़ उद्देश्यहीन नहीं । मानव की तीन महान इच्छाएं कही जाती है । वे हैं: अधिक कालतक जीने की इच्छा, दुखों से निवृति तथा सतत आनन्द सुख व आनन्द की कल्पना में अथवा उसकी खोज में ही प्रत्येक का जीवन व्यतीत हो रहा है । तो भी आज हमें ऐसा लगता है जैसे हम स्वयं से शांत नहीं, पूर्णानन्द हम से कोसों दूर है । ऐसा क्यों है ? हम या तो सुखी जीवन के अर्थ को नहीं समझते अथवा हमारा प्रयास उल्टा दिशा में है और उद्देश्य खिन और है ।
हम धर्म गोष्ठियों में, वास्तविक सुख क्या है ? कहाँ है ? कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? इत्यादि प्रश्नों पर विचार विनिमय करते हैं तथा अपने प्रिय लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयास करते हैं । गोष्ठियों में व्यक्तिगत योग्यता तथा अनुभवों को कसौटी पर कास कर हम मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं ताकि हमारा प्रयास व्यर्थ न हो, हम पथभ्रष्ट न हो जाएँ तथा अपने वांछित उद्देश्य-निरोग तथा सुखी जीवन-व्यातीत करते हुए सतत आनन्द प्राप्त कर सकें । उस आनन्द को जो आत्मा की प्यास है, जो शाश्वत है, जो शारीर नाश होने के पश्चात् भी हम से दूर न हो, पा सकें । इस आत्मा के आनन्द को केवल मानव शरीर ही प् सकता है । इसी जीवन में पाना है, क्योंकि शरीर का क्या भरोसा ! वास्तव में आनन्द तो हमारे स्वयं में ही है । केवल स्वयं को थोडा टटोलने की आवश्यकता है । जैसे बालपन से बढ़ते हुए मानव की शक्तियां जागरुक होती जाती हैं, इसी प्रकार हमें अपनी सुप्त शक्तियों को जागरुक करके सतत आनन्द को पाना है । प्राकृतिक शक्तियों को समझते हुए नियमित जीवन यापन ही से आनन्द प्राप्त हो सकता है , एसा हमारा विश्वास है । इसे हम कम से कम प्रयास तथा समय में पा लें यह हमारी इच्छा है । सत्संग में इस पर विवेचन किया जाता है की नियमित जीवन क्या है, जिससे वास्तविक तथा सतत आनन्द प्राप्त हो सके ।
हम धर्म गोष्ठियों में, वास्तविक सुख क्या है ? कहाँ है ? कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? इत्यादि प्रश्नों पर विचार विनिमय करते हैं तथा अपने प्रिय लक्ष्य तक पहुँचने का प्रयास करते हैं । गोष्ठियों में व्यक्तिगत योग्यता तथा अनुभवों को कसौटी पर कास कर हम मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं ताकि हमारा प्रयास व्यर्थ न हो, हम पथभ्रष्ट न हो जाएँ तथा अपने वांछित उद्देश्य-निरोग तथा सुखी जीवन-व्यातीत करते हुए सतत आनन्द प्राप्त कर सकें । उस आनन्द को जो आत्मा की प्यास है, जो शाश्वत है, जो शारीर नाश होने के पश्चात् भी हम से दूर न हो, पा सकें । इस आत्मा के आनन्द को केवल मानव शरीर ही प् सकता है । इसी जीवन में पाना है, क्योंकि शरीर का क्या भरोसा ! वास्तव में आनन्द तो हमारे स्वयं में ही है । केवल स्वयं को थोडा टटोलने की आवश्यकता है । जैसे बालपन से बढ़ते हुए मानव की शक्तियां जागरुक होती जाती हैं, इसी प्रकार हमें अपनी सुप्त शक्तियों को जागरुक करके सतत आनन्द को पाना है । प्राकृतिक शक्तियों को समझते हुए नियमित जीवन यापन ही से आनन्द प्राप्त हो सकता है , एसा हमारा विश्वास है । इसे हम कम से कम प्रयास तथा समय में पा लें यह हमारी इच्छा है । सत्संग में इस पर विवेचन किया जाता है की नियमित जीवन क्या है, जिससे वास्तविक तथा सतत आनन्द प्राप्त हो सके ।
प्रणाम ..............अर्जुन राज