सुन्दरसाथजी ! हमलोग प्रात: ऊठकर शौच स्नान आदिसे निवृत्त हो परब्रह्म परमात्मा श्री राजजीकी प्रार्थना करते हुए उनका आवहान करते हैं, आवोजी वाला मारे घेर- अर्थात हे प्रियतम श्री राजजी ! आप हमारे घरमें आ जायें ! अपने गाँवमें मन्दिर हो तो वहाँ पुजारीजी भी प्रात: श्री राजजीका आवहान करते हुए यही प्रार्थना गाते हैं. किसीके घरमें भी पूजास्थान हो तो वहाँ भी इसी प्रकार इसी भावसे प्रार्थना होती है ! हम गारसे बाहर या कहीं भों मन्दिर सामने न होने पर भी शौच स्नानादिसे निवृत्त होकर कहीं भी बैठकर किसी भी स्थितिमें इसी प्रकार श्री राजजीकी प्रार्थना कर सकते हैं !
हमारी प्रार्थनामें हम श्री राजजीको अपने घरमें बुला रहे होते हैं ! मन्दिरको हम सभीने श्रीराजजीका घर माना होता है ! इसे शुद्ध और पवित्र रखना चाहते हैं ! मंदिरकी पवित्रता बनी रहे इसका ख़ास ख्याल रखते हैं ! और आवश्यकता पड़ने पर स्वयं भी साफ़ सफाईमें जूट जाते हैं ! यह हमारा प्रेम है, श्रद्धा है, धर्मके प्रति बनी हुई अच्छी भावना है ! ऐसा ही होना चाहिए ! श्रद्धा, प्रेम और विशुद्ध भावोंके बिना मनुष्य मनुष्य नहीं रहता !
हमारे निवासस्थानमें भी श्री राजजीके लिए छोटा-स घर (मन्दिर) होता है ! यदि दिसीके पासमें ऐसा न हो तो उन्हें तत्काल ऐसा बना लेना चाहिए ! मन्दिर-पूजास्थानके बिना घरकी कोई शोभा नहीं होती ! इस छोटे-से गृह मन्दिरमें हम श्री राजजीको बुला रहे हैं तो उसे अच्छी तरह सजायें ! जगह भी ऊची होनी चाहिए एवं वाघावस्त्र भी स्वच्छ होने चाहिए ! सज्जनो ! याद रखें, दो घरों (सार्वजनिक मन्दिर तथा गृह मन्दिर) में हमने श्री राजजीको बुलाया ! किन्तु अभी एक महत्त्वपूर्ण घर तो और बाकी है ! उन दोनों घरोंको तो हमने स्वयं अपने परिश्रमसे बनाया है ! किन्तु यह तीसरा घर हमें परमात्माके द्वारा प्राप्त हुआ है ! यह है मानव शरीर ! यह प्रमात्माका बनाया हुआ मन्दिर है ! यदि हम इसको मंदिरके रूपमें रखना चाहते हैं तो हमारी कितनी बड़ी भील हो रही है कि हम इसमें श्री राजजीको नहीं बुला रहें हैं ! जो घर सदैव (आजीवन) हमारे साथ रहता है उसमें तो हमने श्री राजजीको नहीं बुलाया और केवल बाहरके घरमें ही बुलाते रहे तो फिर शान्ति कैसे मिलेगी ? दिसे आनन्दका अनुभव होगा ?
मानव शरीररूप इस मन्दिरमें श्री राजजीके लिए बगुत सुन्दर सिंहासन है उसे ह्रदय कहते हैं ! इस ह्रदयरूप सिंहासनमें हम श्री राजजीको सदाके लिए रखें ! तभी सुख, शान्ति एवं आनंदका अनुभव होगा ! याद रखें, जिस सिंहासनमें राजजीको रखना चाहते हैं वह स्वच्छ होना चाहिए ! उसको पवित्र रखें ! उसमें गंदा न डालें ! सिंहासनके साथ साथ मन्दिर (शरीर) को भी शुद्ध रखें ! शुद्धि दो प्रकारकी होती है, एक बाह्य दूसरी आन्तरिक ! शौच स्नानादिसे बाह्य शुद्धि होती है तो शुद्ध आहार खानपान, शुद्ध व्यवहार-रहन-सहन, बोली, चालीस अन्दरकी शुद्धि आरंभ होते है ! धीरे धीरे अन्त:करणसे राग द्वेष, ईर्षा आदि दूर होनेपर अन्दरकी शुद्धि हो जायेगी, तभी हमारे अन्त:ह्रदयमें श्री राजजीका वास हो पायेगा ! इसीलिए प्रेमी सुन्दरसाथजी ! इस शरीरको माह मन्दिर बनायें, कूड़ादान नहीं ! ह्रदय (दिल) में परब्रह्म परमात्माको रखेंगे तभी यह मन्दिर बनेगा ! किन्तु काम, क्रोध, राग, द्वेष, ईर्षा चुगली निन्दासे अन्त:करणको भरेंगे एवं आहार विहार भी गलत होंगे तो यह शरीर वैसे ही इन कुभावोंको अन्त:करणमें डाली जाती हैं वैसे ही इन कुभावोंको अन्त:कारणमें रखकर हम इस शरीरको कूड़ादान बना रहे हैं ! इस पात्रको बाहर एवं भीतर दोनों ओरसे साफ़ रखें ! शौच, स्नानसे भी शरीरको शुद्ध रखें और खान, पांसे भी शुद्ध रखें ! किसी भी प्रकारके व्यासनोंमें न पड़ें !
गंदगीको अन्दर दालनेपर अंदरसे भी दुर्गन्ध ही आयेगी ! कटु वचन, चुगली, निंदा, ख़राब विचार ये सब दुर्गन्ध ही आती है ! इस पात्रको शुद्ध रखें ! भक्ति, प्रेम और सद्भावनाकी सुगन्धि इससे आती रहे ऐसी व्यवस्था करें ! तभी हमारे ह्रदयरूप सिंहासनमें परब्रह्म परमात्मा श्री राजजी आकर विराजमान होंगे और यह सरीर मन्दिर कहलायेगा ! आइये इसे मन्दिर बनायें !! परत:कालीन प्रार्थनामें सदैव अपने शरीररूप घरमें श्री राजजीका आवहान करनेका अभ्यास करें ! आवोजी वाला मारे घेर आओ का तात्पर्य श्री राजजीको अपने हृदयमें रहनेके लिए आमंत्रण देना है ! यदि हमारा आमंत्रण श्रद्धा, प्रेम, विनय और भक्तिपूर्वक होगा तो श्री राजजी हमारे ह्रदयमें अवश्य पधारेंगे ! जो सुख, शान्ति और आनन्दके लिए हम बाहरके बनाये हुए घरमें राजजीको बुलाना चाहते हैं यदि उनके द्वारा ही बनाए गए इस शरीरमें उनको बुलानेका प्रयत्न करेंगे तो हमें कभी भी निराश होना नहीं पडेगा !! प्रणाम ..............
सत्संग सुधा कि ओर से
संकलन श्री अर्जुन राज
श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर