3/04/2010

मोह तथा प्रेम

सुन्दर साथ जी भावनाओं में सबसे अधिक जिस भावना की चर्चा होती है आह हैं प्रेम. साधारनतया मोह तथा प्रेम एक ही श्रेणी में रखे जाते हैं. परन्तु लगाव, तथा प्रेम में अंतर है. प्रेम अधिकतर व्याक्तियों से ही समझ जाता है. मोह संसार के पदार्थों अपने शरीर तथा प्राणों से होता है. अपने सगे सम्बन्धियों से भी मोह होता है. प्रेम स्वयं हो जता है जो बाद में जगाव का रूप धारण कर लेता है. प्रेम परमात्मा कि आलौकिक दें है. इसके सात इसके झूठे रूप को दिखा कर न जाने कितना अनर्थ भी होता है. जो प्रेम के नाम को लाँच्छन लगाना है.
अधिक प्रेम किसी व्यक्ति विशेष से अथवा पदार्थ से, दुःख का कारण है. क्योंकि जिस व्यक्ति अथवा पदार्थ से हमें प्रेम अथवा मोह है, उसकी अप्राप्ति में दुःख भासता है. फिर सब नश्वर है. हमारा अपना शरीर भी दूसरों का भी. संसार में जो बना है नष्ट भी होगा. हमारा जीवन एक स्वप्न है. इसलिए स्वयं को अर्थात अपनी वास्तविक स्थिति को भूल हम उन व्यक्तियों से अथवा पदार्थों से प्रेम तथा मोह करते हैं जो हमारी नहीं. परन्तु संसार के सब प्राणियों से तथा पदार्थों से प्रेम ही इस प्रकृति के दृश्यों को देखकर प्रसन्न होना ही उचित है .
मोह में कारण रहता है और अपने अहंकार को पुष्टि मिलती है. दूसरी  ओर प्रेम सर्वत्र अकारण होता है, किया नहीं जाता स्वयं ही हो जाता है. प्रेम में लेना नहीं देने का ही भाव होता है. अहंकार कि पुष्टि तो क्या अहंकार शून्य होना ही वास्तविक प्रेममय होना है. मह मानवीय दुर्बलता है तो प्रेम अलौकिक गुण. प्रेम स्वार्थ रहित होने के कारण उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहता है. मोह कारण पाकर प्रकट होता है, प्रेम अकारण ही सर्वत्र प्राकृतिक झरने कि भांति फूट पड़ता है. मोह में विवेक तथा उदारता आ जाने से वह प्रेम बदल जाता है. सबसे प्रथम हम स्वयं से प्रेम करें अर्थात शारीरिक अंगों से उनके स्वास्थ्य के लिए. पुन:  प्राय जनों, समाज, देश तथा समस्त प्राणियों से. जब सब मानवता से प्रेम हो जायगा तो सब कुछ पा लिया. मानवता हमारी आत्मा ही है आत्मा से प्रेम होने पर परमात्मा से प्रेम है....................
प्रेम गली अति संकड़ी, यामे दो ना समय......................प्रणाम अर्जुन राज