क्रोध मनुष्य का एक महान शत्रु कहा गया है ! क्रोध की परिभाषा यह है जिसमें मनुष्य अपना संतुलन खो कर आपे से बाहर आ जाए ! क्रोध से मानव शक्तियों का ह्रास होता है ! लगातार क्रोध से कई प्रकार की व्याधियाँ तथा बीमारियाँ भी शरीर को जकड लेती हैं ! हम जैसा चाहते हैं यदि वैसा न हो तो हमें क्रोध आता है ! इच्छा पूर्ण नहीं होती वरन कार्य क्षमता तथा विचार क्षमता का ह्रास अवश्य होता है !
मन द्वारा जब विषयों (इच्छाओं) का चिन्तन होता है और विषयों को चिन्तन करने वाले पुरूष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध आता है ! क्रोध से अविवेक अर्थात मूढ़ भाव उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है ! स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है ! और बुद्धि के नाश होने से पुरूष अपने श्रेय साधन से गिर जाता है ! यह गीता का उपदेश है !
अहंकार भी क्रोध का कारण बनता है ! सब गुण परस्पर आश्रित है ! मानव के सभी स्वभावों का कोई अर्थ अवश्य है ! वे व्यर्थ नहीं ! क्रोध यदि अपनी सत्ता को समझते हुए दूसरे को यह सुझा कर कि यह उस के ही लाभ गेतु है तो यह गुणकारी है ! धीरे-धीरे क्रोध की प्रवृति को दूर करके क्षमा की प्रवृति को बढ़ना चाहिये ! क्रोधजन अपने लिए शत्रु अधिक बना लेता है ! अपना विवेक नष्ट कर भले बुरे की पहचान नहीं कर पाटा है ! मंद बुद्धि तथा छोटे तो उत्पात करते ही हैं ! उन पर क्रोध करने से स्वयं को क्यों तुच्छ बनाया जाए ! उन पर क्षमा बड़प्पन का चिन्ह है ! क्षमा कायरों का नहीं बलवानों का आभूषण है ! क्रोध से कभी किसी को सन्मार्ग पर नहीं लाया जा सकता ! स्वयं को संयमित करके विवेक पूर्ण भाषण द्वारा शत्रु भी वश में हो जाते हैं ! बुराई अथवा अन्याय देखकर चुप्पी साधना कार्यरत है, उसके प्रति विरोध दर्शाना ही चाहिये ! परन्तु हम जो भी करें अपने उद्देश्य को भली-भाँति देख समझ कर करें ! यही अक्रोध है !!
णाम..............अर्जुन राज