11/24/2010

ईर्ष्या जैसी व्याधि की कोई दवा नहीं

य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्य कुलान्वये।
सुखभौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिनन्तकः।

हिंदी में भावार्थ-जो दूसरे का धन, सौंदर्य, शक्ति और प्रतिष्ठा से ईर्ष्या करता है उसकी व्याधि की कोई औषधि नहीं है।



न कुलं वृत्तही प्रमाणमिति मे मतिः।
अन्तेध्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते।।
हिंदी में भावार्थ-अगर प्रवृत्ति नीच हो तो ऊंचे कुल का प्रमाण भी सम्मान नहीं दिला सकता। निम्न श्रेणी के परिवार में जन्मा व्यक्ति प्रवृत्ति ऊंची का हो तो वह अवश्य विशिष्ट सम्मान का पात्र है।



वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ईर्ष्या का कोई इलाज नहीं है। मनुष्य में रहने वाली यह प्रवृत्ति उसका पूरा जीवन ही नरक बना देती है। मनुष्य जीवन में बहुत सारा धन कमाता और व्यय करता है पर फिर भी सुख उससे परे रहता है। सुख कोई पेड़ पर लटका फल नहीं है जो किसी के हाथ में आ जाये। वह तो एक अनुभूति है। अगर हमारे रक्तकणों में आनंद पैदा करने वाले तत्व हों तभी सुख की अनुभूति हो सकती है। इसके विपरीत लोग तो दूसरे के सुख से जले जा रहे हैं। अपनी पीड़ा से अधिक कहीं उनको दूसरे का सुख परेशान करता है। इससे कोई विरला ही मुक्त हो पाता है। ईर्ष्या और द्वेष से मनुष्य में पैदा हुआ संताप मनुष्य को बीमार बना देता है। उसके इलाज के लिये वह चिकित्सकों के पास जाता है। फिर भी उसमें सुधार नहीं होता क्योंकि ईष्र्या और द्वेष का इलाज करने वाली कोई दवा इस संसार में बनी ही नहीं है।


जो लोग जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर सम्मान पाने का मोह पालते हैं वह मूर्ख हैं। उसी तरह पैसा, पद, और प्रतिष्ठा पाने पर अगर कोई यह भ्रम पाल लेता है कि लोग उनका सम्मान करते हैं तो वह भी नहीं रखना चाहिये। लोग दिखाने के लिये अपने से अधिक धनवान का सम्मान करते हैं पर हृदय से उसी व्यक्ति को चाहते हैं जो उनसे अधिक गुणवान होता है। गुणों की पहचान ही मनुष्य की पहचान होती हैं। इसलिये अपने अंदर सद्गुणों का संचय करना चाहिए। दूसरे का सुख और वैभव देखकर अपना खून जलाने से कोई लाभ नहीं होता

अवगुण काढ़े गुण ग्रहे, हारे से हुए जीत | साहेब सों सनमुख सदा, ब्रह्म सृष्टिका एही रीत ||

11/03/2010

दीपावलीकी शुभकामना

दीपावलीकी शुभकामना 
जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ कृष्णमणिजी महाराज 
धर्मप्राण सुन्दरसाथजी !
आप सभीको दीपावलीकी हार्दिक शुभकामनाएँ | आपको विदित ही है कि दीपावली प्रकाशका पर्व है | यह पर्व अपने अंत:करणमें ज्ञानरूपी दीपक प्रज्जवलित कर अज्ञानरुपी अन्धकार दूर करनेके लिये प्रेरणा देता है | तारतम ज्ञानके द्वारा हृदयको प्रकाशित कर आत्माका अनुभव करने लगेंगे तो प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होगी और हम पूर्णब्रह्म परमात्मा श्रीराजजीके सान्निध्यका अनुभव कर पाएँगे | महामतिने इस उत्सवके लिए कहा है |
दीपनो मेलो रे ओच्छव अति भलो, जिहां सणगार करो धनी सर्व साथ |

दीपावलीके पावन पर्व पर आत्माका श्रृंगार होना चाहिए | वह प्रेमसे ही संभवहै | वास्तवमें आत्माका श्रृंगार ही प्रेम है | प्रेमसे ही परमात्मा मिलन संभव है | महामतिने कहा भी है, 
"प्रेम खोल देवे सब द्वार"
"प्रेम पहोंचावे मिने पलक"
प्रेमके द्वारा ही पारके द्वार खुलेंगे और श्री राजजीके सानिध्यका अनुभव होगा | यह प्रेम विशुद्ध प्रेम है | इसमें मायाके कोई विकार नहीं होंगे | दुनियाँमें जिसको प्रेम कहा जता है वह विषयोंका विकार है उसकी ओर उन्मुख होनेसे पतन होगा | महामतिने  जिस प्रेमकी चर्चा की वह आत्माका प्रेम है | ब्रह्मात्माएँ यही श्रृंगार धारण कर श्रीराजजीके सान्निध्यका अनुभव करेंगी |

सुन्दरसाथजी ! ब्रह्मात्माओंके लिए ही तारतमज्ञानका अवतरण हुआ है | यह ज्ञान हृदयको प्रकाशित करनेके लिए है | इसके द्वारा आलोकित हृदयमें प्रेमका अंकुर फूटेगा | तदनन्तर यह प्रेम आगे बढ़ते-बढ़ते अपने प्रियतम धनी पूर्णब्रह्म परमात्मा तक पहुँचेगा | इसी प्रेमके द्वारा हमें अपने प्रियतम धनी पूर्णब्रह्म परमात्माका अनुभव होगा | इस अनुभवको और आगे बढ़ाते जाएँ | कभी न कभी हमें अपने धनीके दर्शन अवश्य होंगे |

ध्यान रखें ! आत्मा और परमात्माको जाननेके लिए तारतम ज्ञान एवं आत्मा और परमात्माकी अनुभूतीके लिए प्रेमलक्षणा भक्तिका अवतरण हुआ है | प्रेम प्रकट होने पर हम हर क्षण श्री राजजीका अनुभव कर पायेंगे | हमें ऐसा अनुभव होगा कि मैं हर क्षण श्रीराजजीके सान्निध्यमें हूँ | 
दीपावलीका यह पावन पर्व सभी सुन्दरसाथको अपने धामधनीकी अनुभूतिके लिए सहयोगी बने | प्रणाम 

श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर 

11/02/2010

दीवाली का सम्बन्ध दिल से है

आप सभीको दीपावलीकी हार्दिक मंगलमय शुभकामनाएँ |

सामने दीवाली है. एकदम सामनेहर कोई उसके स्वागत को तैयार है. धनपति की अपनी तैयारी है. निर्धन की अपनी आधी-अधूरी तैयारी है . दरअसल दीवाली का सम्बन्ध दिल से है. कहा भी तो गया है, , कि मन चंगा तो कठौती में गंगा. मन में उदासी है, जेब खाली तो कैसी दीवाली? महंगाई के कारण आम आदमी का दिवाला पिट रहा है. वह भीतर-भीतर रोता है, बाहर-बाहर मुस्काता है. लेकिन त्यौहार हमें नवीन कर देते है. दुःख के पर्वत को काट देते है. त्यौहार के आने से मन में उत्साह जगाता है, कि आने वाला कल शायद बेहतर होगा. इससे बेहतर. घर की सफाई करता है, पुताई करता है. नवीनता को जीने की कोशिश है यह. अभावो के बीच भावः ख़त्म नहीं होते. कंगाली है, फिर भी आदमी दीवाली मनायेगा. अमीर की भी दीवाली है तो गरीब की भी. सब अपनी-अपनी हैसियत से दीवाली मना लेते है. यही है अपना देश. लेकिन दीवाली के पहले भारत माता की ओर से धनपतियो से अपील तो की ही जा सकती है, कि इस दीवाली पर तुम एक काम करना- गरीब बच्चो का भी ध्यान रखना. जो बच्चे अनाथालयों में पल रहे है, उनके लिए भी कुछ मिठाईयां (नकली नहीं..), कुछ पटाखे भी खरीद कर वहां तक पहुंचा देना. यही हमारे नागरिक होने का फ़र्ज़ है. वृधाश्रम में उपेक्षित बुजुर्ग रहते है. उनके बीच भी जाना. दीवाली की खुशियाँ तब और बढ़ जायेगी. ये नुसखे आजमा कर तो देखें. दीवाली के पहले ये अपील इसलिए ताकि कोई हलचल हो. वैसे देश में अच्छा सोचने और करने वालों की कमी नहीं. मै जो बात कह रहा हूँ, बहुत से लोग ये सब करते है. उससे कहीं ज्यादा करते है |

श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर 
अर्जुन राज पुरी 

प्रारब्ध और पुरुषार्थका रहस्य

प्रारब्ध और पुरुषार्थका रहस्य 
कितने ही मनुष्य प्रारब्धको, भाग्यको प्रधान बताते हैं और कितने ही पुरुषार्थको | किन्तु वास्तवमें अपने-अपने स्थानमें ये दोनों ही प्रधान हैं | धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारोंको पुरुषार्थ कहते हैं, इनमें धर्म, अर्थ, काम तो 'पुरुषार्थ' हैं और मोक्ष 'परम पुरुषार्थ' है | इन चारोंमेंसे धर्म और मोक्ष के साधनमें पुरुषार्थ ही प्रधान है | इन दोनोंको जो मनुष्य प्रारब्धपर छोड़ देता है, वह इनके लाभसे वंचित रह जाता है; क्योंकि धर्म और मोक्षका साधन प्रयत्नसाध्य है | अपने-आप सिध्द होनेवाला नहीं है, किन्तु अर्थ और कामकी सिध्दमें प्रारब्ध प्रधान है, प्रयत्न तो उसमें निमित्तमात्र है | 

श्री कृष्णजी गीतामें अर्जुन को कहते हैं कि हे अर्जुन "कर्मफलका त्याग न करनेवाला मनुष्योंके कर्मका तो अच्छा-बुरा और मिला हुआ- इस प्रकार तीन तरहका फल मरनेके पश्चात अवश्य मिलता है, किन्तु कर्मफलका त्याग कर देनेवाले मनुष्योंको कर्मोंका फल किसी कालमें भी प्राप्त नहीं होता |"

किसी कर्मको मनुष्य सकामभावसे करता है तो उसका इस लोकमें स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थोंकी प्राप्ति और परलोकमें स्वर्गादिकी प्राप्तिरूप फल होता है तथा निष्कामभावसे किये हुए थोड़े-से भी कर्त्तव्यपालनका फल परमात्माकी प्राप्तिरूप मुक्ति है- स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात | गीता २ | ४० )

'इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान भयसे रक्षा कर लेता है |' मनुष्य कर्म करनेमें अधिकांश स्वतन्त्र है, पर फल भोगनेमें सर्वथा परतन्त्र है | भगवनने स्वयं कहा है- 
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोस्त्वकर्मणि || (गीता-२ | ४७)
हे अर्जुन ! 'तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके पलोंमें कभी नहीं | इसलिये तु फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो |' अतएव मनुष्यको उचित है कि निष्कामभावसे अपने कर्त्तव्यकर्मका पालन करे | जो किये हुए कर्मोंका पल न चाहकर कर्त्तव्यकर्म कराता है, उसका अंत:कारण शुध्द होकर उसे परमात्माकी 
प्राप्तिरूप मुक्ति मिल जाती है |

श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर
अर्जुन राज पुरी