प्रीतम मेरे प्राण के, आतम के आधार !
ए दिल भीतर देखियो, है अति बड़ो विस्तार !!
प्रिय सुन्दर साथजी प्रार्थाना का साधारण भाषा में अर्थ उन शब्दों अथवा गद्य से लिया जाता है जिसके द्वारा मौश्य अपने इष्ट को प्रसन्न करना चाहता है और कुछ याचना करता है. जैसे स्वास्थ्य, धन, सदबुद्धि, अपनी संतान अथवा सम्बन्धियों का कल्याण इत्यादि. कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ लोग प्रार्थना द्वारा दूसरों का अहित भी माँगते हैं. प्रार्थना कि प्रथा लगभग विश्व के सब धर्मों में प्रचलित है. सबका ढंग अपना-अपना है. कुछ संस्थाएँ अपना काम आरम्भ करने से पूर्व प्रार्थना करते हैं. पाठशालाओं में भी पठन-पाठन से पूर्व प्रार्थना की जाती है इत्यादि ! प्रत्येक धर्म इसके महत्त्व के विषय में को मत नहीं जताते हैं ! प्रार्थना का अभिप्राय यह हुआ कि प्रार्थी अपने अहम् को भुला कर किसी अज्ञात शक्ति का आश्रय लेना चाहता है, ताकि उसके सांसारिक कार्य ठीक चलें तथा वह अपना जीवन सुख से व्यतीत कर सके !
जैसा कि पहले कहा गया कि प्रार्थना के ढंग व्यक्ति से व्यक्ति, समाज से समाज, देश से देश में भिन्न-भिन्न हैं ! भारत में प्राय: लोग आँखे मूँद, हाथ जोड़, शांत मन से प्रार्थना गाते हैं ! इसके साथ वाद्य उपकरणों की भी सहायता ली जाती है ! यह नियम कुछ लोग प्रात: तो कुछ कोनों समय करते हैं ! भिन्न भिन्न धर्मों के अनुयायी भिन्न भिन्न ढंगों से प्रार्थना करते हैं ! यह भिन्न भिन्न ढंग एक ही लक्ष्य पर ले जाते हैं ! जैसे अनेक छोटी बड़ी सब नदियाँ अपना स्वरूप भूल, भिन्न-भिन्न दिशाओं में बहती हुई अन्तत: समुद्र में समा जाती हैं इसी प्रकार प्रार्थना के भिन्न-भिन्न ढंगों का उद्देश्य एक ही है !
प्रिय सुन्दरसाथजी वास्तविक प्रार्थना क्या है ? यह वह है जिससे अहंकार शून्यता प्राप्त हो ! जो सकाम अर्थात स्वार्थ के प्रयोजन से न की गई हो, न किसी वास्तु की प्राप्ति के लिए गिड़गिड़ाना और न ही मन में उसकी इच्छा रखना !
संकट में भी उसके निवारण के लिए प्रार्थना करना उचित नहीं ! अनिष्ट करने वालों के लिए यह प्रार्थना करना "कि भगवान तुम्हारा बुरा करे" अथवा प्रार्थना के समय किसी के अनिष्ट की मन में इच्छा तो और भी अमानवीय है ! यह सारी सृष्टि उसी एक ही परमात्मा की बनाई हुई है ! सब जीव उसी की उत्पत्ति है ! वह किसी के कहने पर अपनी संतान का अनिष्ट क्यों करेंगे ! प्रार्थना तो वास्तव में किसी अज्ञात शक्ति से वार्तालाप है ! जो केवल शुद्ध, निश्चल तथा शान्त मन द्वारा ही सम्भव है !
सच्ची प्रार्थना वह है जिसके द्वारा अहंकार शून्य हो मनुष्य समस्त प्राणियों के कल्याण की कामना करें ! जिससे वह विनम्र हो मानवता के सब गुण अपने में लाने की कामना करता है !
विश्व के सब महान व्याक्तियों ने प्रार्थना के महत्त्व को समझा ! क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति सम बुद्धि रहकर अपने विवेक को अपने से भिन्न नहीं होने देता प्रार्थना द्वारा मनुष्य समस्त मानवता को स्वयं में और स्वयं को समस्त मानवता में देखना चाहता है ! प्रार्थना की इस अवस्था पर जो आरूढ़ हो जाता है उसे इस संसार में कुछ अप्रिय लगता ही नहीं !
तुम दुल्हा मैं दुल्हीन, ओर न जनु बात !
इसक सों सेवा करूँ, सब अंगो साक्षात् !!
प्रणाम.....................अर्जुन राज