5/26/2010

कयामतनामा महात्म्य:-

क़यामतनामामें :-
सामान्य जीवोंका विवरण है तो दूसरे प्रकरणमें पयगाम्बरोंका विवरण है. बड़े कयामतनामामें २४ प्रकरण एवं कुल ५३१ चौपाइयाँ हैं. महामतिने इसे छत्रसालको आशीर्वादके रूपमें प्रदान किया था इसलिए प्रकरणके अन्तमें छत्ता अथवा छत्रसाल नाम आता है. इसी उपदेश शैलीमें भी थोड़ासा अन्तर है किन्तु सीधा और स्पष्ट कथन हैं. महामति इस ग्रंथके द्वारा क़यामतके आगमनकी बात करते हैं. सामान्यतया क़यामतका अर्थ होता है ले अथवा प्रलय. इस समयके सात संकेत भी कुरानमें बताए गए हैं. जिनको क़यामतके सात निशान कहा जता है. जैसे कि इस्राफीलके बिगुलकी आवाज सुनते ही कब्रमें-से मूर्दोंका उठना,  दाभातुल अर्जका पैदा होना आदि आदि. महामतिने कहा, इतनें वर्ष बीत गए हैं अभी तक कब्रमें से मुर्दे नहीं उठे हैं, रसूलके वचन तो झूठे नहीं है किन्तु हम उनका ठीक अर्थ समझ नहीं पाए हैं. महामतिने इस विषयमें कहा, ब्रह्मज्ञान सुनते ही आत्मामें जागृति आएगी, शरीररूप कब्रमें सोई हुई चेतना ज्ञानकी अवाज सुनते ही जागृत हो जाएगी. जागृत आत्माके लिए संसार अस्तित्वहीन हो जाता है. इसलिए क़यामतका अर्थ मात्र लय नहीं अपितु आत्म जागृति है. जागृत आत्माएँ संसारको नहीं देखती हैं वे तो अपने धनीके प्रेममें मस्त रहती हैं 'ओ खेले प्रेमें पार पियासों, देखनको तन सागर माहिं' ! की भाँती उनकी स्थिति होती है. महामतिने कुरानके विविध सिपारे एवं आयातोंका प्रमाण देकर अनेक प्रसंगोंका उल्लेख कर क़यामतकी स्पष्टता की है !
इस ग्रन्थमें क़यामतके साथ वेद एवं कतेब ग्रन्थ ब्रह्मात्माओंके लिए एक ही परमात्माका सन्देश डे रहे हैं इस बातकी स्पष्टता की है. ब्रह्मात्माओंका अवतरण उनके लिए तारतम ज्ञानका अवतरण एवं इसके द्वारा आत्म जाग्रितिका रहस्य स्पष्ट किया है. प्रत्येक बातकी पुष्टि कुरानकी आयातोंके द्वारा की है. तारीखनामाके द्वारा तो उन्होंने और स्पष्टता कर दी है कि कतेब ग्रंथोंमें क़यामतकी जिस घडीकी चर्चा है वह घड़ी आ गई है. इस प्रकार महामतिने एक एक उदाहरण देकर क़यामतकी बात स्पष्ट की है. इसीलिए यह ग्रन्थ क़यामतनामा कहलाया. आशा है सुज्ञजन इन ग्रन्थोंका लाभ अवश्य लेंगे ! प्रणाम !!

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5/23/2010

मारफत सागर महात्म्य:-

श्री मारफत सागर एवं क़यामतनामा ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरके क्रमश: त्रयोदश एवं चतुर्दश ग्रन्थ हैं !
मारफत सागर:-
मरिफतका अर्थ पूर्ण पहचान होता है, इसीसे इस ग्रन्थका नाम मारफत सागर पड़ा, इसमें चौदह प्रकरण एवं १०३४ चौपाइयाँ हैं, यद्यपि यह ग्रन्थ कयामतनामासे पश्चात् अवतरित हुआ है तथापि जिल्द बनाते हुए इसे क्यामतनामासे पूर्व रखा गया. महामतिने देह छोडनेसे पूर्व सन्त केशवदासजीके इस ग्रंथके प्रकरणोंका सम्पादन एवं पूरी वाणी तारतम सागर ग्रंथके सकलनका दायित्व सौपा था. इस ग्रंथके आरंभ एवं समापन पर मसौदाके द्वारा उन्होंने इस कार्यको पूर्ण करनेका साकेत दिया है.
             ग्रंथारंभमें परमधाम मूलमिलावेकी परिचर्चाके द्वारा ब्रह्मात्माओंका अवतरण, प्रेमका महत्त्व, श्रीराजजीकी सर्वमूलता  आदि स्पष्ट कि है. दूसरे प्रकरणमें ब्रह्मात्माओंकी जागृतिके लिए अवतरित तारतम ज्ञानका रहस्य स्पष्ट किया. तदनन्तर रसूलके अनुयायियोंका विभाजन, न्यायकी रीत, कुरानके गूढ़ संकेतोंका रहस्य, तीन प्रकारकी सृष्टिके मनोभाव, आचरण, तीन फरिस्तोंका विवरण, न्यायका विवरण, रसूलकी भविष्यवाणी, उनके द्वारा परमात्मासे की गई प्रार्थनाका उल्लेख है. कयामतके समय पर दिखने वाले संकेतोंका उल्लेख रसूल मुहम्मदने पहले ही कर दिया था जिसका सकलन कुरान एवं हदीस ग्रंथोमें है उसका रहस्य महामतिने यहाँ पर स्पष्ट किया है. कुरानके अनेक रहस्य आज भी अनुत्तरित माने जाते हैं उनका स्पष्टीकरण महामतिने आजसे ३५० वर्ष पूर्व कर दिया था किन्तु बाह्यकर्मको प्राधान्य देनेवाले लोग आज भी उस पर विचार नहीं करते. कुछ विद्वान महामतिके इन स्पष्टीकरणोंसे प्रभावित तो अवश्य होते हैं किन्तु उनके स्वीकार करनेमें उन्हें भी भय होता है !
              महामतिने इस ग्रन्थमें भारतवर्षमें लहराते हुए धर्मध्वजका विवरण दिया है, साथमें यह स्पष्टता कि की अब बह्यकर्मकाण्डका ध्वज अपने मूलसे हट गया है. खालीफोंके द्वारा पूछे जाने पर रसूल मुहम्मदने कहा था कि कलका दिन क़यामत (फरदा रोज क्यामत) है. महामतिने यहाँ पर उसका भी स्पष्टीकरण किया है. रसूल मुहम्मदने कहा था कि क़यामतके समय मेरे भाई आएँगे तब मैं भी उनके साथ आऊंगा. महामतिने इस समूहको ब्रह्मात्मओंका समूह कहा है. इस प्रकार मारफत सागरमें कुरानके अनेक रहस्य स्पष्ट किए गए हैं. तारतमज्ञानके द्वारा ही यह संभव हुआ है इसलिए ब्रह्मज्ञान (इलाम लुन्दनी) तारतम ज्ञानके द्वारा होनेवाले अनुभव अथवा पूर्ण पहचानको मारिफत कहा है. प्रणाम !!

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5/18/2010

सिन्धी ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री सिन्धी ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका द्वादश ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !सिन्धी भाषामें होनेसे इस ग्रन्थका नाम श्री सिन्धी रखा गया है ! वास्तवमें इसमें आत्म जाग्रितिका आह्वान तथा विरहिनी आत्माकी पुकार है. इसका अवतरण वि.सं. १७४० से ४८ के मध्यका समय माना गया है. इसमें १३ प्रकरण एवं ५२४ चौपाइयाँ हैं और अन्तिम तीन प्रकरणोंका हिन्दी अनुवाद होनेसे तीन प्रकरण एवं ७६ चौपाइयाँ हिन्दी भाषामें हैं. इस प्रकरण कुल १६ प्रकरण एवं 600 चौपाइयाँ हैं ! प्रथम चौपाई आत्म-जाग्रितिका आह्वान करती है !
आखर वेरा उथणजी, आंई रूहें छड़े जा रांद !
उठी बीच अरसजे, कोड़ करे मिंडू कांध !! 
अर्थात हे आत्मा ! यह आत्म-जाग्रितिका अवसर है. इसलिए अज्ञानकी नीन्दमें-से जागृत होकर हर्ष एवं उमंगके साथ परम धाममें उठो और अपने प्रियतम धनीसे मिलो !
इसी प्रकार दूसरी चौपाइमें उपालम्भके द्वारा विरहकी पराकाष्ठा व्याक्त होती है !
आंऊं धनीयाणी तोहिजीं, डे तूं मूं जी रे अंग !
मूं मुंए जे डिए, हे कड़ी निसबत संग !! 
हे धनी ! मैं आपकी धनीयानी हूँ, आप मुझे इसी शरीरमें रहते हुए दर्शन दें ! यदि  देह छूट जाने पर दर्शन देंगे तो आपके साथ मेरा सम्बन्ध ही कैसा ? विरहिणी आत्मा इसी शरीरके द्वारा अपने प्रियतम धनीसे मिलना चाहती है. उसे पियाके दर्शनके अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए. अनेक स्थलों पर महामतिने विरहके साथ प्रार्थना, उपालम्भ भी दिए हैं. सर्वत्र श्री राजजीके आदेशकी प्राधान्यता एवं भूमिका बताई गई है. ब्रह्मात्माएँ श्री राजजीके ही अंग होने से उन्हें मायामें आने पर भी अपने प्रियतम धनीको भूलना नहीं चाहिए  ! देहाध्यासके कारण उन्हें अपने प्रियतम धनीकी पहचान नहीं हो रही है इसलिए दैहिक अहंकारको पहचान कर उसे त्याग दें और श्री राजजीके आदेशका महत्त्व समझ कर उसके अनुरूप कार्यं करें. वास्तवमें ब्रह्मात्माएँ श्री राजजीके चरणोंमें ही रहकर अपनी सुरता के द्वारा ही ऐसा सम्भव हुआ है. इस प्रकार अन्तमें श्री राजजीके आदेशका महत्त्व समझकर यह ग्रन्थ पूर्ण होता है !

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5/13/2010

सिनगार ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री सिनगार ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका ग्यारहवाँ ग्रन्थ है. विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
श्री सिनगार ग्रन्थकी भाषा हिन्दी है. इसका अवतरण वि.सं. १७४० से १७४८ के मध्य पद्मावतीपुरी पन्नामें हुआ है. इसमें कुल २९ प्रकरण एवं २२११ चौपाइयाँ हैं. इसमें श्रीराजजीके श्रृंगारका विशद वर्णन है. यद्यपि सागर ग्रन्थमें श्रीराजजी, श्यामजी एवं ब्रह्मात्माओंकी शोभा एवं श्रृंगारका वर्णन हुआ है किन्तु इस ग्रन्थमें श्रृंगारका विशद वर्णन होनेसे इसे महा-सिनगार भी कहा गया है !
महामति श्री प्राणनाथजीको सद्गुरुने श्रीराजजीका स्वरूप एवं श्रृंगार विस्तार पूर्वक समझाया था. तदन्तर महामतिने जो अनुभव किया उसका वे विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं. वे आरंभ में ही कहते हैं कि श्री राजजीके आदेशने ही यह वर्णन किया है. प्रथम प्रकरणमें मंगलाचरणके द्वारा परमधाम एवं धामधनीका महत्त्व समझाया. दूसरे प्रकरणके द्वारा यह स्पष्ट किया कि प्रेमका द्वार खुलने पर ही यह वर्णन संभव हुआ है और प्रेमका द्वार श्रीराजजीके आदेश (हुकुम) के द्वारा ही खुला है !
तीसरे प्रकरणसे श्री राजजीके अंगोंका वर्णन आरंभ होता है. सर्व प्रथम श्रीराजजीके चरणोंका वर्णन है. श्रीराजजीके चरणोंका स्मरण ही आत्माको अज्ञानरूपी नींदसे जागृत कर सकता है. इसलिए पाँचवें प्रकरणसे चरणोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है. चरनोंके नखसे लेकर ऊपरकी शोभा ब्रह्मात्माओंको अपने धनीके साथका सम्बन्ध स्पष्ट करती है. जिन आत्माओंको अपने धनीके साथके सम्बन्धकी पहचान है वे इस चरणोंको कभी भी भूल नहीं सकती. वे इन्हीं चरणोंका स्मरण करती हुई परमधाम-पच्चीस पक्षोंका भ्रमण करती है !
इस ग्रन्थमें श्रीराजजीके वस्त्र एवं आभूषणोंकी शोभाका भी विशद वर्णन है. साथमें यह भी स्वष्ट किया है कि वस्त्र एवं आभूषण श्रीराजजीकी शोभा अवश्य बढाते हैं जिनको देखती हुई आत्मा पल मात्रके किए भी अपनी दृष्टि उनसे दूर नहीं कर सकती. इस प्रकार श्रीराजजीके एक एक अंगका वर्णन करते हुए उनकी रसनाका महत्त्व समझाया है. उनके वस्त्र और आभूषणोंका वर्णन कर यह भी स्पष्ट किया कि यह वर्णन तो मात्र संकेत है. वास्तवमें श्रीराजजीके स्वरूप एवं श्रृंगारका वर्णन होना ही कठिन है. किन्तु ब्रह्मात्माएँ इनका स्मरण कर जाग्रत हो सकती हैं इसलिए इनका वर्णन किया गया है.
अन्तमें श्रीराजजीने ब्रह्मात्माओंको कैसी शोभा और सम्पदा प्रदान की है उसका विवरण दिया है. इन प्रकरणोंका मनन करनेसे पता चलता है कि प्रियतम परमात्माकी कृपा ब्रह्मात्माओं पर किस प्रकार बरसती है. इस प्रकार सिनगार ग्रन्थ मात्र वर्णनात्मक ही नहीं अपितु जागनीके लिए भी प्रेरक है.
वरनन करो रे रूहजी, हकें तुम सिर दिया भार !
अरस किया अपने दिल को, माहें बैठाओ कर सिनगार !!

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5/12/2010

सागर ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री सागर ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका दशम ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
सागरका अर्थ समुद्र अथवा सिन्धु होता है. इसे नापा-तौला नहीं जा सकता. महामतिने श्री राजजी, श्यामजी एवं ब्रह्मात्माओंके स्वरूप, शोभा, सम्बन्ध आदिको सागरकी भाँति अपरिमेय बताते हुए इनके लिए सागर शब्दका प्रयोग किया है ! उन्होंने श्री परिक्रमा ग्रन्थमें परमधामके आठ सागारोंका वर्णन किया है ये ब्रह्मानन्दरसके सागर हैं. इन्हीं सागरोंकी भाँति मूलमिलावावेकी विविध शोभाओंको भी सागरकी उपमा दी गई है. इस ग्रन्थमें १५ प्रकरण एवं ११२८ चौपाईयाँ हैं !
प्रथम सागर नूर सागर है. नूरका अर्थ होता है प्रकाश. इसमें मूलमिलावेकी शोभा, श्री राजश्यमाजी एवं ब्रह्मात्माओंकी बैठक, उनकी शोभा एवं श्रृंगारका वर्णन है. सर्वत्र इनका ही प्रकाश छाया हुआ दिखाई देता है. दूसरा सागर है ब्रह्मात्माओंकी शोभाका ! ब्रह्मात्माएँ खेल देखनेकी चाह मनमें लेकर उमंग एवं भयके साथ एक दूसरेसे मिलकर बैठी हैं ! वे कभी भी इसप्रकार नहीं बैठीं थीं 'अतंत शोभा लेत हैं, कबूं ना बैठियां यों कर !' तीसरा सागर एक दिलीका अर्थात ब्रह्मात्माओंके एकात्मभावका है. इसका तात्पर्य है कि सभीका भाव एक है और सभी एक समान सुखका अनुभव करती हैं. चौथा सागर युगलकिशोर श्री राजश्यमजीके श्रृंगारका है. महामतिने श्री राजजीके स्वरूप एवं श्रृंगार- वस्त्राभूषणकी शोभाका वर्णन तीन बार किया है. और श्री श्यामजी एवं ब्रह्मात्माओंकी शोभा एवं श्रृंगारका वर्णन क्रमश: दो एवं एक बार किया है. मूलमिलावेकी शोभा ही अनुपम है. उसमें भी सिंहासनपर विराजमान श्रीराजश्यामाजी एवं चबूतरेपर बैठी हुई ब्रह्मात्माओंकी शोभा तो साक्षात शब्दातीत है. पाँचवाँ सागर प्रेम (इश्क) का है. श्री राजजी श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंका प्रेम वर्णनातीत है. आत्मा तागृत होनेपर इसका अनुभव कर सकती है. छठ्ठा सागर ब्रह्मज्ञान (खुदाई इल्म) का है. तारतम ज्ञान ब्रह्मज्ञान है. श्री राजजीके आदेशसे ही इसका अवतरण हुआ है. इसी ज्ञानके द्वारा श्री राजजी श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंके सम्बन्धका अनुभव हो सकता है. सातवाँ सागर सम्बन्ध (निसवत) का है. श्री राजजी श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंका सम्बन्ध शाश्वत है. परमधाममें यह सम्बन्ध सदैव है. नश्वर जगतमें आनेपर ब्रह्मात्माएँ इसे भूल गई. श्री राजजीने अपनी आत्माओंको ब्रह्मधाम परमधामके सुखोंका महत्त्व समझानेके लिए उन्हें तीनों  बार जगतका खेल दिखाया और वे स्वयं भी रहस्यको समझ पाएँगी और श्री राजजी एवं श्यामाजीके साथाके सम्बन्धकी पहचान कर पाएँगी !
आठवाँ सागर कृपा (मेहेर) का है. श्री राजजी स्वयं कृपासिन्धु हैं. उनकी कृपाका कोई पारावार नहीं है. उन्होंने धाम, व्रज, रास एवं जागनी इन चारों लीलाओंके द्वारा ब्रह्मात्माओंको अपनी कृपाका अनुभव करवाया है. ब्रह्मात्माओंपर उनकी कृपा पल पल बरसती है !
इस प्रकार मूलमिलावा (मूल बैठक) के आठ सागरोंके द्वारा महामतिने अक्षरातीतकी शोभा, स्वरूप, श्रृंगार, कृपा आदि सभीको अपरिमेय (शब्दातीत)  बताया है !! 
बात बड़ी है मेहेर की, हक के दिल का प्यार !
सो जाने दिल हक का, या मेहेर जाने मेहेर को सुमार !!

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5/10/2010

परिक्रमा ग्रन्थ महात्म्य:-

श्री परिक्रमा ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका नवम ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
परिक्रमाका अर्थ प्रदक्षिणा होता है. महामति ह्सिर प्राणनाथजीने परमधामके पच्चीस पक्षोंका परिक्रमण करते हुए उनके विशद वर्णन युक्त ग्रन्थका नाम परिक्रमा रखा. यह ग्रन्थ महामतिकी कृति श्री तारतम सागर महाग्रन्थका सबसे बड़ा ग्रन्थ है. इसमें कुल ४३ प्रकरण एवं २४८१ चौपाइयाँ हैं और भाषा सरल हिन्दी है. इसका अवतरण वि.सं. १७४० से १७४८ तक का समय माना गया है !
परमात्माके नाम, स्वरूप, लीला, येश्वर्या, गुण, प्रेम, दया एवं धामके विषयमें बिभिन्न शास्त्रोंमें उल्लेख अवश्य है किन्तु उनका विशद वर्णन कहीं भी नहीं है. महामतिने लगभग छ: हजार चौपाइयोंमें इनका विशद वर्णन किया है. उनमें लगभग २५०० चौपाइयाँ युक्त परिक्रमा ग्रन्थमें मात्र परमधामका वर्णन है.
यह सर्वविदित है कि परमात्मा एवं उनके धामका अनुभव मात्र प्रेमके द्वारा ही संभव है. इसीलिए परमधामका वर्णन आरम्भ करनेसे पूर्व महामति प्रेमका वर्णन करते हैं.
अब कहूं रे इसक की बात, इसक सबदातीत साख्यात !
जो कदी आवे मिने सबद, तो चौदे तबक करे रद !! परिक्रमा.१ चौ. १
ब्रमात्माएँ परमधामका प्रेम लेकर इस जगतमें अवतरित हुई हैं ! इसी प्रेमके द्वारा वे नश्वर जगतमें रहते हुए  भी अपने धनी और धामका अनुभव कर पाएँगी. ग्रन्थमें मंगलाचरणके पश्चात् परमधामके संक्षिप्त वर्णनके साथ श्री राजजीकी अष्ट-प्रहारकी चर्चाका वर्णन है. प्रेम प्रकट होनेका उपाय समझाते हुए रंग भवनके चारों ओरके वन-उपवन एवं वहाँकी लीलाके समय श्री राजजीके स्वरूप और श्रृंगारका वर्णन है. तदन्तर यमुनाजीके तटपर स्थित सात घाट, कुंज-निकुंज वन, हौजकोसर ताल, उसके घाट, टापू, महल, फूलबाग, नूरबाग, लाल चबूतरा, ताड़वन, बडावन आदिके वर्णनके साथ पुष्पराग गिरि, वहांके महल, यमुनाजीका उद्गम प्रवाह, दोनों किनारोके दृश्य, दोनों पुल, उसके महल, रंगमहल, ताल नहरें, माणिक्य पर्वत पशुपक्षियोंका प्रेम तथा परमधामके विविध दृष्योंका वर्णन एकसे अधिक बार हुआ है. !
इस प्रकार २९ प्रकरण पर्यन्त धाम-वर्णन कर महामति कहते हैं, सद्गुरुने मुझे जिस प्रकार परमधामके दर्शन करवाए हैं अभीतक उसीके अनुरूप वर्णन हुआ है, अब आगे अपनी अनुभूतीके आधारपर वर्णन करने जा रहा हूँ ! ऐसा कहकर उन्होंने पुन: धामका वर्णन आरम्भ किया. सर्वप्रथम रंगभवनके सम्मुख एवं पार्श्ववर्ती दृश्योंका संक्षिप्त वर्णन कर रंगभवनकी दशों भूमिकाएँ एवं वहांकी लीलाओंका वर्णन किया. तदन्तर परमधामकी सम्पदा, मूलमिलावेके वार्तालाप रंग भवनके बाह्य दृश्य, नूरकी परिक्रमा, दशों भूमिकाओंका वर्णन, रंगभवनका पुन: संक्षिप्त वर्णन, प्रेमका महत्त्व, आदिका वर्णन कर महामति कहते हैं, ब्रह्मज्ञानसे जागृत होकर प्रेमपूर्वक ब्रह्मधामका अनुभव करें !
परिक्रमा ग्रन्थमें, सर्वत्र ब्रह्मधामके विविध दृष्योंका वर्णन है, साथमें धामकी लीलाएँ भी बतायी हैं. इनके हृदयंगमको धामकी चितावनी कहा है !!

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5/09/2010

खिलवत ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री खिलवत ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका अष्टम ग्रन्थ है. विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
खिलवत (खिल्बत) का अर्थ होता है एकान्त मिलन. आत्मा और परमात्माके एकान्त मिलनको महामतिने खिलवत कहा है और एकान्त मिलन सम्बन्धी चर्चायुक्त ग्रन्थका नाम भी श्री खिलवत रखा. यह ग्रन्थ सरल हिन्दीमें है. इस ग्रन्थ का अवतरण वि.सं. १७४० से १७४८ का समय माना गया है. इसमें कुल १६ प्रकरण एवं १०७४ चौपाइयाँ हैं. प्रथम प्रकरण प्रार्थनाका है.
ऐसा खेल देखाइया, मांग लिया है हम !
अब कैसे अरज करूं, कहोगे मांग्या तुम !!
कछू आस न राखी आसरो, ए झूठी जिमी देखाए !
ऐसी जुदागी कर दई, कछू कह्यो सुन्यो न जाए !!
ब्रह्मात्माएँ नश्वर जगतका खेल देखनेके लिए अवतरित हुई हैं किन्तु जगतके प्रपन्चमें भूल कर भौतिक दुखसुखोंका अनुभव कर रही हैं. तारतम ज्ञानसे जाग्रत होने पर उन्हें पता चला कि उन्होंने नश्वर जगतका खेल देखनेके लिए श्री राजजीसे मांग की थी अब वे श्री धामधनीसे खेलकी शिकायत कैसे करेंगी वे अपनी उलझनोंके साथ श्री राजजीसे प्रार्थना करती हैं.
धनी एती भी आसा ना रही, जो करूं तुमसों बात !
ना बात तुमरी सुन सकों, ना देखूं तुमें साख्यात !!
श्री महामतिने यहाँ पर उनकी प्रार्थनाको वाचा दी है. तदन्तर श्री राजजीके सानिध्यकी अनुभूतीके लिए मुख्य बाधक अहंकार 'मैं पन' को दूर करनेका उपाय समझाया-
मार्या कह्या काढ्या कह्या, और कह्या हो जुदा !
एही हैं खुदी टले, तब बाकी रह्या खुदा !!
पेहेले पी तूं सरबत मौत का, कर तेहेकीक मुकरर !
एक जरा जिन सक रखे, पीछे रहो जीवत या मर !!
पन्चरोसनीके पांच प्रकरणोंमें परमधामके रहस्य एवं ब्रह्मात्माओंका पारस्परिक संवाद, श्री राजजीकी सर्वोपरिता,- ए सुख सबदातीत के, क्यों कर आवें जुबान !
बाले थें बुढापन लग, मेरे सिर पर खड़े सुभान !!
एक पातसाही अरस की, और वाहेदत का इसक !
सो देखलावने रूहों को, पेहेले दिल में लिया हक !!
बताया है तथा ब्रह्मात्माओंको जागृत करनेके लिए श्री राजजी द्वारा श्यामजीको सद्गुरुके रूपमें भेजनेका प्रसंग, परमधामके गूढ़ रहस्य एवं श्री राजजी ब्रह्मात्माओं पर किस प्रकार कृपा करते हैं उसका रहस्य स्पष्ट किया है !
इस ग्रन्थमें आत्मा और परमात्माका सम्बन्ध खेलका रहस्य एवं श्री राजजी एवं परमधामकी सर्वोपरिताको संवादके माध्यमसे है. इस ग्रन्थका पाठ करते हुए 'हम श्री राजजीसे बात कर रहे हैं' ऐसा अनुभव होता है !

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
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5/07/2010

खुलासा ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री खुलासा ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका सप्तम ग्रन्थ (कुलजम स्वरूप का सातवाँ ग्रन्थ-स्कंध है. कुलजम-दरिया जैसे सभी नदीयाँ (दरिया) में आकर समाहित होती है. एसेही कुलजम स्वरूप में वेद, पुराण, उपनिषद् एसेही कुरान-पुराण का समीकरण) है. इसमें कुल १८ प्रकरण एवं १०२० चौपाइयाँ हैं ! इसकी भाषा हिन्दी है साथमें अरबी एवं फारसीके शब्द भी यथास्थान प्रयुक्त हैं. इसका अवतरण काल वि.सं. १७३८ से १७४३ पर्यन्त माना गया है
महामति श्री प्राणनाथजी धर्म प्रचार यात्रामें रामनगर पहुँचे थे. उस समय औरंगजेब द्वारा भेजे गए पुरदल खान एवं शेख खिदर स्वामीजी से मिलाने आए ! महामतिने उनको कुरान एवं पुराणके विभिन्न प्रसंगोंकी साम्यताकी बात समझायी और कहा, सभी धर्मग्रन्थ एक ही परमतत्त्वकी बात करते हैं, मात्र भाषा और शैलीमें अन्तर है ! खुदा, अल्लाह या ब्रह्म ये सभी शब्द एक ही परमात्माके लिए प्रयुक्त हैं ! कतेब ग्रंथोंमें परमतत्त्वके लिए जो बात कही है वैसी ही बात वैदिक ग्रंथोंमें कही गयी है ! वास्तवमें हिन्दू या मुसलमान सभी एक ही परमात्माकी सन्तानें हैं किन्तु धर्मके मर्मको समझे बिना परस्पर लड़ाई करते हैं-
जो कछु कह्य कतेबने, सोई कह्या वेद !
दोउ वन्दे एक साहेबके, पर लदत बिना पाए भेव !!
बासरी मालकी और हकी, लिखी महंमद तीन सूरत !
होसी हक दीदार सबन को, करसी महंमद सिफायत !!
कुरान आदि कतेब ग्रंथोंमें वैकुण्ठको मलकूत, अक्षरब्रह्मको नूर जलाल तथा अक्षरातीतको नूर जमाल कहा है ! इसी प्रकार ब्रह्मसृष्टिके लिए मोमिन, कुमारिकाओंके लिए फिरस्ते, अक्षरधामके लिए सदरतुलमुंतहा, परमधामके लिए अरस अजीम, श्यामाजीके लिए रूह अल्लाह, श्री कृष्णजीके लिए मुहम्मद, बुद्धाजीके लिए इस्राफिल, विजयाभिनन्दके लिए इमाम, ब्रह्मा-विष्णु एवं महेशके लिए क्रमश: मेकाइल, अजाजील एवं अजराइल आदि शब्दोंका प्रयोग हुआ है. श्रीमद्भागवतमें वर्णित वसुदेवकी कथा नूह पैगम्बरकी कथासे मिलाती है. गोवर्धन लीला कोहतूर तूफ़ान तथा योगमायाकी लीला किस्ती और बागके प्रसंगसे सामी हैं ! इस प्रकार नाम और भाषामें ही अन्तर है किन्तु भाव सबका एक है !
महामती श्री प्राणनाथजीने इस ग्रंथके द्वारा सर्वधर्म समभावकी आधारशीला रखी है ! वस्तुत: सभी धर्मावलम्बी एक दूसरेके मत एवं धर्मग्रन्थोंको आदर देने लगेंगे एवं एक दूसरेसे अच्छाइयाँ ग्रहण करने लगेंगे तो धर्मके नाम पर फैला रही वैमनष्यता दूर होगी. मानव मानवमें प्यार होगा और धर्मके नाम पर हो रहे अत्याचार रुक जाएँगे. वर्तमान समयमें महामतिके विचार एवं कार्य अत्याधिक सान्दर्भिक सिद्ध होते हैं !!

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
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5/06/2010

किरन्तन ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री किरन्तन ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रंथ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका षष्ठ ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
विभिन्न रागयुक्त गेय पदावलिके कारण इसका नाम कीर्तन (किरन्तन) रखा गया है. इसमें कुल १३३ प्रकरण तथा २१०२ चौपाइयाँ हैं. इसकी भाषा हिन्दी है तथापि इसमें गुजराती भाषामें पच्चीस प्रकरण तथा सिन्धींमें एक प्रकरण है.
इस ग्रंथमें अधिकांश चौपाइयाँ हिन्दी भाषामें हैं तथापि पुरानी भाषा तथा वेदान्त दर्शन परक प्रसंगोंके कारण यह दुरूह रहा है. यह ग्रन्थ महामति प्राणनाथजीकी जगानी यात्राके समय निष्पक्ष दृष्टिकोणसे किए हुए सत्यके साक्षात्कारका परीक्षण एवं निरूपणका सन्कलन है. इसीलिए किरन्तनको सर्वदेशीय कहा गया है. मानव मूल्योंको जीवन्त बनानेके लिए एवं अन्तर निहित चेतनाको प्रस्फुटित करनेके लिए महामतिने इस ग्रंथके अनेक प्रकरणोंमें अपनी स्पष्ट एवं निर्भिक प्रतिक्रिया व्यक्त करनेमें लेशमात्र भी न्यूनता नहीं राखी है. इसी प्रकार समाजमें प्रचलित रूढ़ियों, जातिप्रथा, कुरीति, अंध विश्वास, सांप्रदायिक कट्टरता, बाह्य आचरण एवं कर्मकाण्डके प्रति भी उनका प्रहार समयोचित रहा है.
उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा कि परमात्मा क्षर, अक्षरसे परे अक्षरातीत हैं; वे ही विश्व-ब्रह्माण्डोंके परमाधिपति हैं; उनको शास्त्रोमें "अक्षरात परत: पर:" , "उत्तम: पुरुषस्त्वन्य" , "एकं सत" , "एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म", "सत्यं परं धीमहि" आदिके द्वारा अक्षरातीत, उत्तमपुरुष, परम सत्य, परम ध्येय तथा एक कहा है. इन्हीं पूर्णब्रह्म परमात्माके साथ हमारी आत्माका सम्बन्ध है. अपने अंत:करणको पवित्र बनाने पर इस सम्बन्धकी पहचान होगी. इसलिए साधन, ज्ञान या भक्तिके द्वारा अंत:करणको पवित्र बना कर स्वयं (आत्मा) की पहचान कर लेनी चाहिए. किरन्तनकी प्रथम चौपाई-
पहेले आप पहचानो रे साधो, पहले आप पहेचानो !
बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो !!
इसी तथ्यको स्पष्ट करती है. इस प्रकार महामति प्राणनाथजीने बड़ी सरलतासे दार्शनिक तत्वोंका निरूपण करते हुए तत्वचिन्तनकी पराकाष्ठा स्पष्ट की है. इसके साथ-साथ मानव जीवनकी उपादेयताको स्पष्ट करते हुए पुराने किरन्तनके द्वारा धर्ममय जीवन जीनेकी कलाका निर्देशन दिया है.
चरचा कथा ता तेहने कहिए, जे आप रुए रोवरावे !
दिन दिन त्रास वधतो जाए, ते वंध रदेनां छोडावे !!
ए रे अर्थ मांहे छे अजवालुं, जो कोय जोसे रे विचारी !
रुदया मांहे थासे प्रकास, ज्यारे जागसे जीव संभारी !!
साध ओलखासे वचने, आने करसे समागम !
साध वाणी साध एम ओचारे, संगत छे साध रतन !!
तत्त्वज्ञान, गेय पदावली एवं व्यावहारिक उपदेशोंकी प्रचुरताके कारण 'किरन्तन' ग्रन्थ अत्यधिक लोकप्रिय है. आशा है सुधी पाठकवृन्द इसका अध्ययन एवं मनन कर अपने जीवनको धन्य बनाएँगे.

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
प्रणाम

5/04/2010

सनंध ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री सनंध ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रंथ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका पञ्चम ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
सनंधका अर्थ प्रमाण होता है ! महामतिने मुग़ल शासक ओरंगजेब एवं उनके दरबारियों द्वारा धर्मके नाम पर किए जा रहे अत्याचारोंको रोकने लिए उनको अपने संदेशके साथ कुरानके प्रमाण दिए थे ! इसलिए इस ग्रंथका नाम सनंध रखा गया !
इसमें कुल ४७ प्रकरण एवं १६९१ चौपाईयाँ हैं ! इसका अवतरण काल वि.सं. १७३५/३६ मन गया है ! इसकी भाषा हिन्दी है ! इसमें दो प्रकरण अरबी एवं एक सिन्धी भाषामें हैं !
महामतिने सर्वप्रथम शब ए म्याराज अर्थात दर्शनकी रात्रिका रहस्य स्पष्ट किया ! तदन्तर रसूलका प्रमाण देकर हिन्दी भाषाकी आवश्यकता पर बल दिया ! आजसे ३५० वर्ष पूर्व ही उन्होंने कहा था कि भारतकी राष्ट्रभाषा हिन्दी होनी चाहिए ! प्रकरण ४ से १८ पर्यन्त कलश ग्रंथके खोज एवं विरहके प्रकरण थोड़े शब्द परिवर्तनके साथ रखे हैं ! तत्पश्चात कलमाका स्पष्टीकरण, कुरानका रहस्य, मुस्लिमोंके आचरण, ब्रह्मात्माओंके लक्षण, रसूलकी पहचान, नबी और नारायणके द्वारा नरकगामी लोंगोका आचरण एवं दूसरे प्रकरणमें धर्मके तथाकथित अग्रणीयोंकी स्थिति स्पष्ट की ! एक ओर बिना एक महम्मद एवं सो कहाँ है मुहम्मद इन प्रकरणोंके द्वारा मुहम्मदकी यथार्थता एवं पहचानकी बात कही तो दूसरी ओर 'सनन्ध इमाम रसूलकी' के द्वारा इमाम और रसूलकी स्पष्टता कर दी ! एक प्रकरणमें दज्जालका परिचय एवं भूमिका बता दू है तो दूसरे प्रकरणमें इमामका प्रताप समझाकर कजा (न्याय) की बात कही ! अरबी एवं सिन्धीमें समझानेका प्रयत्न किया ! ईशा और इमामका महत्त्व समझाकर उनके द्वारा लोगोंको प्राप्त होने वाला न्याय स्पष्ट किया और भिन्न-भिन्न देवदूतोंके स्थान एवं महत्त्व समझाकर बहिस्त एवं क़यामतकी स्पष्टता की !
इस जगतमें ब्राह्मी सन्देश परमात्माके आदेशके द्वारा ही प्राप्त होता है ! पूरे एक प्रकरणके द्वारा इस आदेशका महत्त्व समझाकर नूर और नूरतजल्ला अर्थात अक्षरधाम एवं अक्षरातीतका रहस्य स्पष्ट किया ! एक प्रकरणमें परमात्माको न समझकर मात्र बाह्य आधाम्बर करानेवालोंके प्रति कटाक्ष भी किया है ! अन्तमें बड़ी पत्री एवं छोटी पत्रीके द्वारा अपने अनुयायियोंको समझाया कि वेद और कतेब दोनोंमें परमात्माके एक होनेकी बात कही है ! इसलिए सभी मत मतान्तर एवं धर्मग्रंथोंके भावको समझाकर आगे बढ़ना चाहिए ! वास्तवमें जागनीकी यथार्थता ही यही है ! इस प्रकार सनन्ध ग्रंथके द्वारा महामतिने धर्मग्रन्थोंका प्रमाण देकर परमात्माकी बात समझाई है !! प्रणाम !!

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर 
श्री अर्जुन राज
प्रणाम   

5/02/2010

श्री षटऋतु एवं कलश ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री षटऋतु एवं कलश ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रंथ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरके तृतीय व चतुर्थ ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
षटऋतु ग्रन्थ गुजराती भाषामें है ! इसमें कुल १० प्रकरण एवं २३०  चौपाइयाँ हैं ! इसका अवतरण वि.सं. १७१४-१५  में नवतनपुरी धाम जामनगरमें हुआ है ! इसमें दो विभाग है, (१) षटऋतु एवं (२) बरमासी ! षटऋतुमें आठ प्रकरण हैं जिनमें छ: ऋतुओंके छ: प्रकरण एवं आधिकमास एवं षटऋतुके कलशके एक एक तथा बरमासीके दो प्रकरण हैं ! एक विरहिणी आत्मा छ: ऋतुओंके प्राकृतिक दृश्योंको देखती हुई अपने प्रियतम परमात्माके विरहमें किस प्रकार व्याकुल होती है, उसका निदर्शन है !
इसी प्रकार कलश ग्रन्थ भी मूलत: गुजराती भाषामें है ! महामतिने स्वयं इसका हिन्दी भाषान्तर किया है ! इसकी आरंभिक चौपाइयोंका अवतरण वि.सं. १७१४-१५ में श्री नवतनपुरी धाम जामनगरमें हुआ ग्रंथका शेष भाग वि.सं. १७२९ में सूरतमें पूर्ण हुआ ! इसलिए इसका अवतरण स्थान सूरत मन जाता है ! इसमें कुल १२ प्रकरण एवं ५०६ चौपाइयाँ हैं ! 'शास्त्र शब्द मात्र जो वाणी, ताको कलश वाणी शब्दातीत' कहकर महामतिने ज्ञानग्रंथोंके कलशके रूपमें इसे शिरोमणि कहा है ! यह ग्रन्थ तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण है ! इसमें प्रथम प्रकरणमें ही आत्मा एवं परमात्माकी वार्तालाप उल्लेख है ! निजानंदाचार्य श्री देवचंद्रजी महाराजके मनमें बाल्याकालसे ही जिज्ञासा रहती थी कि, मैं कौन हूँ, यह संसार क्या है, परमात्मा कहाँ हैं, उनके साथ मेरा सम्बन्ध है या नहीं ? आदि आदि.....! उन्होंने अनेक वर्षों तक खोज की ! चालीस वर्षकी आयुमें उन्हें पूर्णब्रह्म परमात्माके दर्शन प्राप्त हुए और परमात्माने उन्हें तारतम-ज्ञान प्रदान किया, मन्त्र दिया एवं पतालसे परमधाम पर्यंतका अनुभव (दर्शन) करवाया ! दूसरे एवं तीसरे प्रकरणमें नश्वर जगतके खेलका सुन्दर चित्रण किया है ! तदुपरान्त नश्वर जगतमें प्रचलित विभिन्न मत-मतान्तर एवं पंथोंके खींचतानकी बात की है ! विराट ब्रह्माण्डकी उलझनें, वेदोंका रहस्य, अवतारोंका प्रकरण, जागनीका प्रकरण, गोकुल लीला, जोगमायाका प्रकरण, दयाका प्रकरण, हँसीका प्रकरण आदिके पश्चात् जागनीके प्रकरण हैं !
इसमें परमात्माको क्षर अक्षरसे परे अक्षरातीतके रूपमें बताया गया है और उनका स्वरूप शून्य निराकारसे परे सच्चिदानन्द स्वरूप बताया है ! अन्तमें आत्मा जागृत होने पर ही सच्चिदानन्दकी अनुभूति हो पाएगी यह स्पष्ट किया है !!

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
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5/01/2010

प्रकाश ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री प्रकाश ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका द्वितीय ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
श्री प्रकाश ग्रन्थ मूलत: गुजराती भाषामें है ! महामतिने स्वयं इसका हिन्दी भाषान्तर भी किया है ! इस ग्रंथका अवतरण वि.सं.१७१४-१५ में श्री नवतनपुरी, जामनगरमें हुआ है ! इसमें कुल ३७ प्रकरण एवं १०६४ चौपाइयाँ हैं !
श्री प्रकाश ग्रन्थ हिन्दी रूपान्तरका अवतरण वि.सं.१७३६ में अनूप शहरमें हुआ है ! इसमें कुल ३७ प्रकरण एवं ११८५ चौपाइयाँ हैं ! हिन्दी रूपान्तरणमें भी प्रकरण संख्या गुजरातीकी ही भाँती है किन्तु भावको अधिक स्पष्ट करनेके कारण चौपाई संख्यामें वृद्धि हुई है ! महामतिने स्वयं इसका हिन्दी रूपान्तरण किया है इससे यह स्पष्ट होता है कि इसका महत्त्व विशेष है ! इसमें विरह वाणी, बेहद वाणी एवं प्रकट वाणीको अधिक स्पष्ट किया है ! शेष सभी प्रसंग गुजरातीके अनुरूप है !!
श्री प्रकाश ग्रन्थ रास लीलाके रहस्यको प्रकाशित करता है ! पूर्णब्रह्म परमात्माने अपनी आत्माओंको व्रज एवं रासकी लीलाओंका अनुभव करवाया ! इन लीलाओंमें श्री कृष्ण साथमें थे इसलिए ब्रह्मात्माओंको नश्वर जगतके सुख-दुखोंका अधिक अनुभव नहीं हुआ ! महामति कहते हैं, 'प्रेम पियासों न करे अन्तर, तो ए दुःख देखे क्योंकर !' वस्तुत: परमात्मा साथमें हों तो दुःख भी दुःख जैसे नहीं लगते ! ब्रह्मात्माओंको सांसारिक दुःख-सुखोंका अनुभव करवाकर जागृत करनेके लिए जागनी लीला है ! प्रकाश ग्रन्थ जागनीका प्रथम सोपान है ! इसके प्रारम्भमें ब्रह्मात्माओंका अवतरण, उन्हें जगानेके लिये श्यामाजीको सद्गुरुके रूपमें भेजनेका उन्लेख है ! वे सुन्दरसाथको अपनी मूल बात याद दिलाकर सचेत करते हैं ! श्री राजजीने श्री श्यामाजीको अपनी शक्ति प्रदान कर ब्रह्मात्माओंको जागृत करनेके लिए सद्गुरुके रूपमें भेजा ! ब्रह्मात्माएँ उनके वचनोंको समझ नहीं पाई ! सद्गुरुके धामगमन होने पर उनके विरहमें सन्तप्त इन्द्रावतीकी वेदना कुछ प्रकरणोंमें व्यक्त हुई है ! अनेक प्रकरणोंमें ब्रह्मात्माओंको स्वयं जागृत होकर दूसरोंको जागृत करनेके लिए प्रेरणा दी गई है ! उनमें मारकंडेयका दृष्टान्त, राजा परीक्षित एवं शुकदेवजीका संवाद, वेहद वाणी, प्रकटवाणी आदि मुख्य हैं ! सुत कातनेके उदाहरण द्वारा कर्तव्यका बोध करवाया है ! लक्ष्मीजीके दृष्टान्त द्वारा श्री कृष्णजीकी सर्वोपरिता समझाई है ! बेहद वाणी द्वारा क्षर, अक्षर एवं अक्षरातीतका रहस्य स्पष्ट किया है !
इस प्रकार प्रकाश ग्रन्थ अज्ञानरूप आवरणको दूर कर आत्माको प्रकाशित करता है !!

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श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर गुजरात
श्री अर्जुन राज
प्रणाम

रास ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री रास ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द संप्रदायका परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका प्रथम ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पुर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रंथको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकरउसका पूजन, पठन तथा पारायण किया जता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओँ तथा अरबी फारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !

रास ग्रन्थ गुजराती भाषामें है ! इसका अवतरण वि.सं.१७१४-१५ में श्री नवतनपुरी, जामनगरमें हुआ है ! इसमें कुल ४७ प्रकरण एवं ९०२ चौपाईयां हैं ! अक्षरातीत श्री कृष्ण-श्री राजजी एवं ब्रह्मात्माओंकी आनन्दमयी लीलाओंका विस्तृत वर्णन होनेसे दिव्य प्रेम रससे आप्लावित इस ग्रंथको इंजील (अंजील) भी कहा गया है !

"रसो वै स:" कह कर अक्षरातीत श्री कृष्णको रस रूप अथवा रस राज बताया गया है ! उनकी दिव्य लीला रास लीला है ! रास शब्द समूहका द्योतक भी है ! रस राज श्री कृष्ण अपनी अंगनाओंको परमानन्दकी अनुभूति करवानेके लिए इस लीलामें समूह (अनेक) रूपमें प्रकट हुए ! इसी ब्राह्मी लीलाका वर्णन होनेसे यह ग्रन्थ 'श्री रास' कहलाया !

इसमें प्रारंभके पाँच प्रकरण रासकी अनुभूतीके लिए योग्यताका निदर्शन करवाते हैं ! इसलिए उनको ग्रन्थकी भूमिकाके रूपमें माना गया है ! मूलत: ग्रंथका शुभारंभ श्री श्यामाजीके सिनगारसे हुआ है ! सर्वप्रथम अवतरित प्रकरण भी यही है ! निजानंदाचार्य श्री देवचन्द्रजी श्री श्यामाजीके अवतार हैं ! उनके धामगमनके पश्चात् उनकी स्मृतिमें एक मेला करनेका आयोजन महामति श्री प्राणनाथजीने किया था ! उसी समय उनको बंदीगृह (हबसा) में जाना पड़ा ! वहाँ पर सद्गुरुका विरह इतना तीव्र बना कि महामति अपने देहभावको ही भूल गए ! उसी समय उन्हें रास लीलाके दर्शन हुए ! सर्वप्रथम श्री श्यामाजी पर उनकी दृष्टि पडी और उन्होंने उनका स्वरूप एवं श्रृंगारका वर्णन किया !

अखण्ड स्वरूपनी अस्थिर आकारे, सोभा कहुं घणवे करीने सनेह !
जोई जोई वचन आणु कै ऊँचा, पण न आवे वाणी मांहें तेह !!
तदन्तर ब्रह्मात्माओं एवं श्री राजजीपर उनकी दृष्टि पडी और उन्होंने उनके श्रृंगारका वर्णन किया !
श्री कृष्णकी वंशीध्वानी सुनकर जैसे ब्रह्मात्माएं गृहत्याग एवं देहत्याग कर वृन्दावन पहुँचती हैं उसी समय योगमायाने उनको शरीर एवं श्रृंगार प्रदान किया ! श्री कृष्णजीने ब्रह्मात्माओंकी परीक्षाके लिए लोक मर्यादा एवं वेद मर्यादाकी बात कही थी उसका उल्लेख महामतिने श्रीमद्भागवतकी भाँति ही किया है ! तदन्तर वृन्दावनके दृश्य दिखाते हुए प्रकृतिका मनोहर वर्णन किया !

महामतिने रासके अनेक रामतों (क्रीडाओं) का वर्णन किया है ! उनमें हमची, आँखमिचौनी, फूदडी, भूलभूलावनी, गढ़की रामत, करताली, घूमरडी कोणियाँ, आम्बाकी रामत, उड़न खटोला आदि विशेष हैं ! महामतिका यह मौलिक वर्णन है ! इस प्रकारका वर्णन श्रीमद्भागवत, गर्गसंहिता आदि श्री कृष्णलीलापरक ग्रंथोंमें कहीं भी नहीं है ! इसी प्रकार अंतर्धयानके पश्चात् महारसकी लीलाएँ हुई ! उसके लिए श्री कृष्णजीके भजनानन्दस्वरूपका उल्लेख किया है ! तदन्तर जलक्रीडा (झीलना), भोग (भोजन) एवं परस्पर बैठकर वार्तालाप करनेका प्रसंग भी अन्यत्र नहीं मिलता है !

गोपियाँ अन्तर्धानके विरहकी वेदना व्यक्त करती हुई श्री कृष्णजीसे प्रार्थना करती हैं, प्रभो ! अब हमें वहाँ पर ले चलें जहाँ कभी भी वियोग नहीं होता है,

हवे वाला हुं एटालुं मांगु, खिण एक अलग न थैए !
जिहां अमने व्रह नहीं, चालो ते घर जैए !!
वास्तवमें विरह रहित घर तो परमधाम ही होता है ! महामतिने यह भी स्पष्ट किया है कि पूर्णब्रह्म परमात्माने ब्रह्मात्माओंकी सुरताको थोड़े क्षणके लिए परमधाम लौटाया किन्तु दुःखरूप जगतमें खेल देखनेकी इच्छा शेष रह जानेसे पुन: उन्हें नश्वर जगतमें भेज दिया !
इस प्रकार रास ग्रन्थमें लीला वर्णनके साथ साथ अनेक रहस्य भी स्पष्ट किए हैं !!

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श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर
श्री अर्जुन राज
प्रणाम