जब व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रत्येक पर-पदार्थ के प्रति अपने ममत्व एवं अपनी आसक्ति का त्याग करता है तब वह राग-द्वेषरहित हो जाता है, वह आत्मचेतना से जुड़ जाता है, शेष सबके प्रति उसमें न राग रहता है न द्वेष।
विश्व के सभी धर्मों में नैतिक मूल्यों का प्रतिपादन है, मानव मूल्यों की स्थापना है, मानव-जाति में सदाचारण के प्रसार का प्रयास है। इन नैतिक मूल्यों, सद्गुणों एवं सदाचारों को व्यक्त करने वाली शब्दावली में भिन्नता होने के कारण बाह्य धरातल पर हमें धर्मों के साधना-पक्ष में अन्तर प्रतीत होता है, तात्विक दृष्टि से सभी धर्म मनुष्य के सद्पक्ष को उजागर करते हैं, सामाजिक जीवन में शान्ति, बन्धुत्व, प्रेम, अहिंसा एवं समतामूलक विकास के पक्षधर हैं। सर्वधर्म समभाव की उदात्त चेतना का विकास सम्भव है। मतवादों का भेद हमारे ज्ञान एवं प्रतिपादन शक्ति की अपूर्णता के कारण है। प्रत्येक तत्व पर अनेक दृष्टियों से विचारच्च सम्भव है।
इसी प्रकार जब साधक सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को आत्मतुल्य समझता है तब भी उसका न किसी से राग रह जाता है और न किसी से द्वेष। धर्म का अभिप्राय व्यक्ति के चित्त का शुद्धिकरण है जहाँ पिण्ड में ही ब्रह्माण्ड' है। समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, प्रेमभाव तथा समभाव होना ही धर्म है और इस दृष्टि से 'सर्वधर्म समभाव' में से यदि विशेषणों को हटा दें तो शेष रह जाता है- 'धर्म-भाव'। सम्प्रदाय में भेद दृष्टि है, धर्म में अभेद-दृष्टि। हमारी कामना है कि विश्व में इसी अभेद-दृष्टि का विकास हो। धर्म से पहले जुड़ने वाला कोई भी 'विशेषण' किसी भी स्थिति में कभी भी अपने 'विशेष्य' से अधिक महत्वपूर्ण न बने।
जुदे जुदे नामें गावहीं, जुदे जुदे भेख अनेक !
जुदे जुदे नामें गावहीं, जुदे जुदे भेख अनेक !
जिन कोई झगड़ो आपमें, धनि सावों का एक !!
प्रत्येक धर्म में व्यक्ति के राग-द्वेष के कारणों को दूर करने का विधान स्पष्ट है। क्रोध से द्वेष का तथा अहंकार, माया एवं लोभ से राग का परिपाक होता है। व्यक्ति क्षमा द्वारा क्रोध को, मार्दव या विनम्रता द्वारा अहंकार को, आर्जव या निष्कपटता द्वारा माया या तृष्णा को तथा शुचिता द्वारा लोभ को जीतता है। तदनन्तर व्यक्ति सत्य का प्रकाश प्राप्त कर पाता है। संयम के द्वारा व्यक्ति इन्द्रियों की विषय-उन्मुखता पर प्रतिबन्ध लगाता है या उन्हें नियंत्रित करता है। तप रूपी अग्नि में कषाय, वासनाएँ, कल्मषताएँ जल जाती हैं। इसके बाद व्यक्ति संचित पदार्थों का त्याग करता है, वस्तुओं के प्रति आसक्ति समाप्त करता है तथा काम भाव को संयत कर काम-वासना पर विजय प्राप्त करता है।
विश्व के सभी धर्मों में नैतिक मूल्यों का प्रतिपादन है, मानव मूल्यों की स्थापना है, मानव-जाति में सदाचारण के प्रसार का प्रयास है। इन नैतिक मूल्यों, सद्गुणों एवं सदाचारों को व्यक्त करने वाली शब्दावली में भिन्नता होने के कारण बाह्य धरातल पर हमें धर्मों के साधना-पक्ष में अन्तर प्रतीत होता है, तात्विक दृष्टि से सभी धर्म मनुष्य के सद्पक्ष को उजागर करते हैं, सामाजिक जीवन में शान्ति, बन्धुत्व, प्रेम, अहिंसा एवं समतामूलक विकास के पक्षधर हैं। सर्वधर्म समभाव की उदात्त चेतना का विकास सम्भव है। मतवादों का भेद हमारे ज्ञान एवं प्रतिपादन शक्ति की अपूर्णता के कारण है। प्रत्येक तत्व पर अनेक दृष्टियों से विचारच्च सम्भव है।
pranam................................