3/16/2010

उन्हींका जीवन सार्थक है:-

ऊँचा-से-ऊँचा पद-गौरव, बड़ी-से-बड़ी सम्पत्ति, दुनियाभरका सम्मान, अचल कीर्ति, अत्यन्त गौरवमयी विद्या, लौकिक विज्ञानका अद्भुत आविष्कार, साहित्यकी सरस मार्मिकता, नैसर्गिक कवित्वशक्ति, मनचाहा सुखद परिवार और स्नेहमय हृदयसे पालन-पोषण करनेमें समर्थ माता-पिता आदि कोई भी सहज आकर्षक या परम आवश्यक प्रिय वास्तु यदि परमात्मा के प्रेम से रहित है, प्रभु प्रेममें सहायक नहीं है तो उसके त्यागमें ही प्रभु प्रेम को सुख मिलता है ! जगत्का कोई पदार्थ रहे तो प्रभु-प्रेमको बढ़ानेवाला होकर रहे- प्रभुके पूजनकी सामग्री होकर रहे; नहीं तो उसकी कोई भी आवश्यकता नहीं ! जितना शीघ्र  उसका संग छूटे, उतना ही मंगल है !
जो देश, स्थान, समाज, व्याक्ति, संयोग-वियोग, वेष, भाषा-साहित्य, विज्ञान और भोजन-वस्त्र परमात्मा के प्रेमको जगानेवाला है, भगवत्प्रेम को बढ़ानेवाला है, जो प्रभुप्रेम में पूर्ण है-बस, प्रेमी अपना सब कुछ खोकर, किसी भी बातकी तनिक भी परवा न कर-उसीको चाहता है, उसीको ग्रहण करता है, उसीमें रमण करता है ! प्रियतमकी प्रिय स्मृति दिलानेवाला होनेके कारण वह उसके मनको परम प्रिय है,  फिर चाहे लौकिक दृष्टिसे वह पदार्थ कितना ही हीन और दुःखदायी क्यों न माना जाता हो !
जिसके हृदय में प्रभुके प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया, जो हृदय निर्मल प्रेमके कारण भगवानके विरह-तापसे तत्प्त हो उठा, उसमें दूसरी वास्तु रह नहीं सकती-समां नहीं सकती !  वहाँ अन्यके लिये गुंजाइश ही नहीं रह जाती ! जिनका हृदय ऐसा अनन्य प्रभुप्रेममय हो गया है, उन्हीं का जीवन सार्थक है, वे धन्य हैं ! ऐसे प्रभुप्रेमकी प्रप्तिमें प्रभुकी अहैतुकी दया और उनकी सुह्रीत्ता ही प्रधान है ! जिनपर भगवानकी कया होती है, उनपर सबको कया करनी पड़ती है ! सबको उन करुणानिधान पूर्णब्रह्म परमात्मा के प्रेणासे स्वाभाविक ही उनके अनुकूल बन जाना पड़ता है ! बाधक साधक हो जाते हैं और विघ्न वधा भी पथप्रदर्शकका काम करने लगते हैं !! प्रणाम !!