6/24/2010

भक्तियोग क्या है ?

  भक्तियोग क्या है ?

           यह योग भावनाप्रधान है और प्रेमी प्रकृति वाले व्यक्ति के लिए उपयोगी है. प्रेमी भक्त परमात्मा से प्रेम करना चाहता है और सभी प्रकार के क्रिया-अनुष्ठान, पुष्प, गंध-द्रव्य, सुन्दर मन्दिर और मूर्ती आदि का आश्रय लेता और उपयोग करता है. प्रेम एक आधारभूत एवं सार्वभौम संवेग है. यदि कोई व्याक्ति मृत्यु से डरता है तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसे अपने जीवन से प्रेम है. यदि कोई व्यक्ति अधिक स्वार्थी है तो इसका तात्पर्य यह है कि उसे स्वार्थ से प्रेम है. किसी व्याक्ति को अपनी पत्नी या पुत्र आदि से विशेष प्रेम हो सकता है. इस प्रकार के प्रेम से भय, घृणा अथवा शोक उत्पन्न होता है. यदि यही प्रेम पूर्णब्रह्म परमात्मा से हो जाय तो वह मुक्तिदाता बन जाता है. ज्यों-ज्यों परमात्मा से लगाव बढ़ता है, नश्वर सांसारिक वस्तुओं से लगाव कम होने लगता है. जब तक मनुष्य स्वार्थयुक्त उद्देश्य को लेकर परमात्मा का भजन करता है तब तक वह भक्तियोग की परिधि में नहीं आता है. परा-प्रेमलक्षणा भक्ति ही भक्तियोग के अन्तर्गत आती है जिसमें परमात्मा को छोड़कर अन्य कोई अभिलाषा नहीं होता है. भक्तियोग शिक्षा देता है कि परमात्मा के साथ शुभ भाव से प्रेम इसलिए करना चाहिए कि ऐसा करने से तन-मन और धन शुद्ध होता है. और ऐसा करना अच्छी बात है, न कि स्वर्ग पाने के लिए अथवा सन्तति, सम्पत्ति या अन्य किसी कामना की पूर्ती के लिए.! भक्तियोग यह सिखाता है कि "प्रेम" का सबसे  बड़ा पुरस्कार "प्रेम" ही है, और प्रेम का पर्यावाची शब्द भी प्रेम ही है, और स्वयं परमात्मा प्रेम स्वरूप है !

            "हे प्रियतम ! अज्ञानी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति इन्द्रियों के भोग के नाशवान पदार्थों पर रहती है, उसी प्रकार की प्रीति मेरी आपमें हो, और आप का स्मरण करते हुए मेरे हृदय से आप कभी दूर न होना" ! भक्तियोग सभी प्रकार के संबोधनो द्वारा परमात्मा को अपने हृदय का भक्ति-अर्ध्य प्रदान करना सिखाता है-जैसे, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री राजजी आदि ! सबसे बढ़कर वाक्यांश जो परमात्मा का वर्णन कर सकता है, सबसे बढ़कर कल्पना जिसे मनुष्य का मन परमात्मा के बारे में ग्रहण कर सकता है, वह यह है कि परमात्मा 'प्रेम स्वरूप है' ! जहाँ कहीं प्रेम है, वह परमात्मा ही है. जब माता बच्चे को दूध पिलाती है तो इस वात्सल्य में वह परमात्मा ही है, जब पति पत्नी का चुम्बन करता है तो वहाँ उस चुम्बन में भी परमात्मा ही है ! जब दो मित्र हाथ मिलाता है तब वहाँ भी परमात्मा प्रेममय धामधनी के रूप में विद्यमान है. मानव जाती की सहायता करने में भी परमात्मा के प्रति प्रेम प्रकट होता है. यही भक्तियोग का शिक्षा है !

          भक्तियोग भी आत्मसंयम, अहिंसा, ईमानदारी, निश्छलता आदि गुणों की अपेक्षा भक्त से करता है, क्योंकि चित्त की निर्मलता के बिना नि:स्वार्थ प्रेम सम्भव ही नहीं है. प्रारम्भिक भक्ति के लिए परमात्मा के किसी स्वरूप की कल्पित प्रतिमा या मूर्ती ( जैसे दुर्गा की मूर्ति, शिव की मूर्ति, राम की मूर्ति, श्री कृष्ण की मूर्ति, गणेश की मूर्ति तथा वांग्मय स्वरूप की आदि ) को श्रद्धा का आधार बनाया जाता है. किन्तु साधारण स्तर के लोगों को ही इसकी आवश्यकता पड़ती है. प्रेम का कोई भी स्वरूप नहीं होता ! ओतो सर्वव्यापी है. बिरह सहन न होने के कारण उसको पानेकी आसमें मूर्तिरूप में पूजा करने लगता है. जो भक्तियोग में तल्लीन होकर पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री राजश्यामाजी की लगन में लग जाता है, उन ब्रह्मात्माओं को इन सभी चीजोंका आवश्यकता नहीं होती. ओतो आठों पहर चौसठ घड़ी निश-दिन अपने धामधनी पूर्णब्रह्म परमात्मा के प्रेम में ही मग्न रहता है. ऐसी आत्माओं के लिए तो खाना, पीना, उठना-बैठना आदि सबकुछ उनके ही लिए समरपित समझते हैं. पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत धामधनी श्री कृष्ण तो सदैव अपने भक्तके हृदय-मन्दिर में ही रहते हैं और अपने प्रिय भक्त से निरन्तर प्रेमालाप करते रहते हैं !! प्रणाम !!

श्री अर्जुन राज

6/17/2010

देखत ना हक तरफ:-

देखत ना हक तरफ
रे रूह करे ना कछू अपनी, के तूं उरझी उम्मत मांहें !
उमर गई गुण सिफत में, तोहे अजून इसक आवत नाहें !!
हक सिर पर इन विध खड़े, देखत ना हक तरफ !
जो स्वाद लगे मेहेबूब का, तो मुख ना निकले एक हरफ !!

              महामति श्री प्राणनाथजी अपनी आत्मा से कहते हैं, हे आत्मा ! तूने अपने लिए कुछ भी नहीं किया. तू अपने लिए भी कुछ कर ले. क्या तू केवल अन्य आत्माओं को जागृत करने में ही उलझी रहेगी ? तू तो स्वयं जाग कर अपने प्रियतम परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पित हुई नहीं. तेरी सारी उम्र प्रियतम परमात्मा के गुण गान में ही बीत गई लेकिन अब तक तुम्हारे हृदय में प्रियतम के प्रति अनन्य प्रेम प्रकट नहीं हुआ !

             हे आत्मा ! तेरा प्रियतम तेरे सिर पर सदा सर्वदा निशदिन तेरी सेवामे खड़ा है, फिर भी तू उनकी ओर देखती तक नहीं. यदि अपने प्रियतम परमात्मा के दिव्य प्रेम का तनिक भी स्वाद तुझे लग गया होता, तो तेरे मुख से एक शब्द का भी उच्चारण इस प्रकार नहीं हो पता. क्योंकि जाग्रितात्मा पल भर भी नयनों की पलकें मुंद नहीं सकती और उसके मुख से प्रियतम के प्रेम के सिवा और कोई शब्द उच्चारीत नहीं हो सकता है. प्रियेतम धनी के विरह तो निशदीन पल-पल सताती है. जो आत्मा उनसे एक बार मिल चुकी हो वे भला उनके शिवा कैसे चुप रहपायेगी ! विरहा गत रे जाने सोई जो मिलके विछुरी होए ! ज्यों मीन विछुरी जल थें या गत जाने सोई ! मेरे दुलहा !!

श्री अर्जुन राज
प्रणाम

6/11/2010

महामति प्राणनाथ और प्रेमलक्षणा भक्ति

             महामति श्री प्राणनाथजी ने परमधाम की प्राप्ति एवं धामधनी की कृपा प्राप्ति के लिए ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग के स्थान पर प्रेमलक्षणा भक्ति  को ज्यादा महत्त्व दिया है. नवधा भक्ति से भी श्रेष्ठ प्रेमलक्षणा भक्ति को अक्षरातीत परमधाम तक पहुँचने का मार्ग बताया है. महामति श्री प्राणनाथजी मानते हैं कि प्रेम से बढ़कर इस संसार में कुछ नहीं है. वे अपने श्री मुख से कहते हैं- एही सबद एक उठे अवनी में, नहीं कोई नेह समाना. (किरंतन २३/५)

              महामति श्री प्राणनाथजी कहते हैं कि प्रेमलक्षणा भक्ति के बिना वेद श्री मद्भागवत पुराण, कुरान के गूढ़ार्थों को न समझने वाले लोगों को शान्ति प्राप्त नहीं होती है ऐसा लगता है मानो बहरे को गूँगा समझा जा रहा हो. महामति श्री प्राणनाथजी कहते हैं- प्रेमें गम अगम की करी, प्रेम करी अलख की लाख ! कहें श्री महामति प्रेम समान, तुम दूजा जिन कोई जान !!

           महामति प्रेम को सर्वोपरि मानते हैं. प्रेम के अतिरिक्त सभी साधना पद्धतियाँ व्यर्थ हैं- इसक बड़ा रे सबन में, न कोई इसक समान ! एक तेरे इसक बिना, उड़ गई सब जहान  !!
         
           'प्राणनाथजी के अनुसार पुष्ट, प्रवाह और मर्यादा मार्ग तो अन्य सृष्टियों के लिए है. परमधाम की ब्रह्मसृष्टियों के लिए तो सकाम और निष्काम भक्ति से परे तुरीयातीत अवस्था में गोपीभाव युक्त परा प्रेमलक्षणा भक्ति ही कही जा सकती है- नवधा से न्यारा कह्या, चौदे भवन में नाहीं ! सो प्रेम कहाँ से पाइए, जो बसत गोपिका माहिं !

             प्रेम ही आत्मा को निर्मल करता है, प्रेम ही आचरण को श्रेष्ठ बनाता है. प्रेम ही झुकना सिखाता है, प्रेम ही जगत का सार है ! महामति श्री प्राणनाथजी कहते हैं- उत्पन्न प्रेम पारब्रह्म संग, वाको सुपना हो गयो संसार ! प्रेम बिना सुख पार को नाहीं, जो तुम अनेक करो आचार !! छकियो साथ प्रेम रस मातो, छूटे अंग विकार ! परआतम अंतस्करण उपज्यो, खेले संग आधार !! (किरंतन ८३/९)

             महामति श्री प्राणनाथजी के अनुसार प्रेम ही परमधाम का द्वार है तारतम वाणी में प्रेम को परमधाम की प्राप्ति का सर्वोच्च साधन माना गया है. महामति श्री प्राणनाथजी ने प्रेम की अवधारणा का प्रसार न केवल जीवधारियों तक किया, बल्कि वनस्पति जगत तक प्रेम का प्रसारण किया. इसलिए वे सदा सर्वदा सभी को शीतल नैन एवं मीठे बैन से आत्मवत बनाना चाहते हैं, वे कहते हैं- दुःख न देऊं फूल पांखडी, देखूँ शीतल नैन ! उपजाऊं सुख सबों अंगो, बोलाऊं मीठे बैन !! (कलस २३/४) 

             महामति श्री प्राणनाथजी प्रेम को परमात्मा मानते थे वे कहते हैं कि- 'प्रेम ब्रह्म दोऊ एक हैं' ! प्रेम के लिए चौदह लोक से लेकर परमधाम तक कोई अवरोध नहीं है- प्रेम खोल देवे सब द्वार, पार के पर जो पर ! (परिक्रमा १/२४) 

          पंथ होवे कोट कलप, प्रेम पहोंचावे मिने पलक ! जब आतम प्रेम से लागी, अन्तर दृष्टि तबहीं जागी !! 
            महामति श्री प्राणनाथजी मानते हैं कि प्रेम से ही अन्तरात्माकी शुद्धिकरण होगी तथा प्रेम से ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है. वे 'प्रकाश ग्रन्थ अन्तर्गत लिखते हैं- तुम प्रेम सेवाएँ पाओगे पार, ए  वचन धनी कहे निराधार !

           स्पष्ट है महामति श्री प्राणनाथजी ने प्रेम को जीवन का आधार माना है, तो परमधाम का मार्ग भी प्रेम का मार्ग माना है और परमधाम का द्वार भी प्रेम का ही है, वस्तुत: वे प्रेम और ज्ञान की मूर्ती थे. कहा गया है कि-पूरणब्रह्म प्रगट भये, प्रेम सहित लै ज्ञान ! प्रणाम

श्री अर्जुन राज
प्रणाम

6/08/2010

प्रणामी धर्म की मूल परम्परायें:-

प्रणामी धर्म की मूल परम्परायें:-
(१) प्रिय सुन्दरसाथजी हमारा मूल महामंत्र निजनाम श्री कृष्ण जी से शुरू होता है. अत: हमें इसी का जाप करना चाहिये !

(२) आद्य जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ श्री देवचन्द्रजी महाराजको पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्णजीने प्रकट होकर जो तारतम महामंत्र सद्गुरु श्री को दिया था आज भी पूज्य गुरुवार मंत्र देते समय षोडाक्षर तारतम महामंत्र शिष्यों को प्रदान करते हैं !

(३) श्री कृष्ण प्रणामी निजानन्द सम्प्रदायमें अखण्ड परमधाम में रहने वाले पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्णजी, जो सभी के प्राणों के नाथ हैं, उन्हीं श्री कृष्णजी के हम ध्यान करते हैं. अत: उन्हीं श्री कृष्ण प्यारे का सर्व प्रथम हमें जयकारा लगाना चाहिय !

(४) आद्यधर्मपिठाधिस्वर पूज्यपाद  जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ श्री देवचन्द्रजी महाराज ने वि. सं. १६८७ कार्तिक मास में आद्यधर्मपिठका स्थापना किया है, तभी से अखिल प्रणामी जनता इसे अपना मूल धर्म स्थान मानती है. श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर !

(५) श्री ५ नवतनपुरी धाम में श्री राजश्यमाजी की सेवापूजा निम्न अनुसार किया जाता है. प्रात: ५.१५ मे मंगल (दर्शन) आरती. ९. बजे सिनगार आरती, ११. बजे राजभोग आरती, दोपहर ३ बजे उठापन तथा बाल भोग, साम ७. बजे संध्या आरती, रात को ८.३० में निरत सत्संग तथा ९. बजे सयन आरती और श्री राजश्यमाजी कि पौढ़ावानी अर्थात सयन- चुन-चुन कालिया में सेज बिछाऊं, बंगलन फूल भराऊं, सेज सुरंगी पर पियाजी पौढ़ाऊं, करसे बीड़ी आरोगाऊं !

(६) श्री कृष्ण प्रणामी (निनानन्द) सम्प्रदाय का स्थापना ४२७ वर्ष पूर्व आद्य जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ श्री देवचन्द्रजी महाराज ने किया तथा उन्होंने ही पाताल से लेकर परमधाम तक का खुलासा किया तथा पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत धनी का पहिचान समस्त मानव जाती को करवाया !

(७) उसी परम्परा को कायम रखने वाले श्री कृष्ण प्रणामी (निजानन्द) सम्प्रदाय का वर्तमान जगद्गुरु आचार्य श्री १०८ श्री कृष्णमणिजी महाराज है जो भारत वर्ष के गुजरात राज्य के जामनगर सहर  स्थित आद्यधर्मपिठ श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर मे विराजमान है ! प्रणाम

अधिक जानकारी के लिय संपर्क करें श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज