बस में था न गुस्सा, जाने किधर गया !
सतगुरु को मनाने गया था, सेवा भावी बनकर
सेवा में यूँ खोया, समय गया कैसे गुजर !
नजारा न देखा जब तक, सत्संग की धारका
देखा जो समाया आँखों में, अब दिल में उतरगया !
यहाँ न तन्हाई, न गम है, बस ख़ुशीयों का मेला है
जो भी गया सत्संग में, समझो अपने घर गया !
यहाँ ज्ञान और भक्ति की, बहती हैं धाराएँ
जिसने भी लगाया गोता, भवबंधन से तर गया !
यहाँ गुरु और शिष्य का, होता अनोखा मिलन
जिसने भी देखा सुना, चकित ही रहगया !
यहाँ परमधाम का नजारा, आकर तो देखो सुन्दरसाथ
परामधाम से नूर ही नूर, मनो जमी पर बिखर गया !!
प्रणाम.......................
रचना अर्जुन राज