11/02/2010

प्रारब्ध और पुरुषार्थका रहस्य

प्रारब्ध और पुरुषार्थका रहस्य 
कितने ही मनुष्य प्रारब्धको, भाग्यको प्रधान बताते हैं और कितने ही पुरुषार्थको | किन्तु वास्तवमें अपने-अपने स्थानमें ये दोनों ही प्रधान हैं | धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारोंको पुरुषार्थ कहते हैं, इनमें धर्म, अर्थ, काम तो 'पुरुषार्थ' हैं और मोक्ष 'परम पुरुषार्थ' है | इन चारोंमेंसे धर्म और मोक्ष के साधनमें पुरुषार्थ ही प्रधान है | इन दोनोंको जो मनुष्य प्रारब्धपर छोड़ देता है, वह इनके लाभसे वंचित रह जाता है; क्योंकि धर्म और मोक्षका साधन प्रयत्नसाध्य है | अपने-आप सिध्द होनेवाला नहीं है, किन्तु अर्थ और कामकी सिध्दमें प्रारब्ध प्रधान है, प्रयत्न तो उसमें निमित्तमात्र है | 

श्री कृष्णजी गीतामें अर्जुन को कहते हैं कि हे अर्जुन "कर्मफलका त्याग न करनेवाला मनुष्योंके कर्मका तो अच्छा-बुरा और मिला हुआ- इस प्रकार तीन तरहका फल मरनेके पश्चात अवश्य मिलता है, किन्तु कर्मफलका त्याग कर देनेवाले मनुष्योंको कर्मोंका फल किसी कालमें भी प्राप्त नहीं होता |"

किसी कर्मको मनुष्य सकामभावसे करता है तो उसका इस लोकमें स्त्री, पुत्र, धन आदि पदार्थोंकी प्राप्ति और परलोकमें स्वर्गादिकी प्राप्तिरूप फल होता है तथा निष्कामभावसे किये हुए थोड़े-से भी कर्त्तव्यपालनका फल परमात्माकी प्राप्तिरूप मुक्ति है- स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात | गीता २ | ४० )

'इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान भयसे रक्षा कर लेता है |' मनुष्य कर्म करनेमें अधिकांश स्वतन्त्र है, पर फल भोगनेमें सर्वथा परतन्त्र है | भगवनने स्वयं कहा है- 
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोस्त्वकर्मणि || (गीता-२ | ४७)
हे अर्जुन ! 'तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके पलोंमें कभी नहीं | इसलिये तु फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो |' अतएव मनुष्यको उचित है कि निष्कामभावसे अपने कर्त्तव्यकर्मका पालन करे | जो किये हुए कर्मोंका पल न चाहकर कर्त्तव्यकर्म कराता है, उसका अंत:कारण शुध्द होकर उसे परमात्माकी 
प्राप्तिरूप मुक्ति मिल जाती है |

श्री ५ नवतनपुरी धाम जामनगर
अर्जुन राज पुरी