5/13/2010

सिनगार ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री सिनगार ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका ग्यारहवाँ ग्रन्थ है. विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
श्री सिनगार ग्रन्थकी भाषा हिन्दी है. इसका अवतरण वि.सं. १७४० से १७४८ के मध्य पद्मावतीपुरी पन्नामें हुआ है. इसमें कुल २९ प्रकरण एवं २२११ चौपाइयाँ हैं. इसमें श्रीराजजीके श्रृंगारका विशद वर्णन है. यद्यपि सागर ग्रन्थमें श्रीराजजी, श्यामजी एवं ब्रह्मात्माओंकी शोभा एवं श्रृंगारका वर्णन हुआ है किन्तु इस ग्रन्थमें श्रृंगारका विशद वर्णन होनेसे इसे महा-सिनगार भी कहा गया है !
महामति श्री प्राणनाथजीको सद्गुरुने श्रीराजजीका स्वरूप एवं श्रृंगार विस्तार पूर्वक समझाया था. तदन्तर महामतिने जो अनुभव किया उसका वे विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं. वे आरंभ में ही कहते हैं कि श्री राजजीके आदेशने ही यह वर्णन किया है. प्रथम प्रकरणमें मंगलाचरणके द्वारा परमधाम एवं धामधनीका महत्त्व समझाया. दूसरे प्रकरणके द्वारा यह स्पष्ट किया कि प्रेमका द्वार खुलने पर ही यह वर्णन संभव हुआ है और प्रेमका द्वार श्रीराजजीके आदेश (हुकुम) के द्वारा ही खुला है !
तीसरे प्रकरणसे श्री राजजीके अंगोंका वर्णन आरंभ होता है. सर्व प्रथम श्रीराजजीके चरणोंका वर्णन है. श्रीराजजीके चरणोंका स्मरण ही आत्माको अज्ञानरूपी नींदसे जागृत कर सकता है. इसलिए पाँचवें प्रकरणसे चरणोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है. चरनोंके नखसे लेकर ऊपरकी शोभा ब्रह्मात्माओंको अपने धनीके साथका सम्बन्ध स्पष्ट करती है. जिन आत्माओंको अपने धनीके साथके सम्बन्धकी पहचान है वे इस चरणोंको कभी भी भूल नहीं सकती. वे इन्हीं चरणोंका स्मरण करती हुई परमधाम-पच्चीस पक्षोंका भ्रमण करती है !
इस ग्रन्थमें श्रीराजजीके वस्त्र एवं आभूषणोंकी शोभाका भी विशद वर्णन है. साथमें यह भी स्वष्ट किया है कि वस्त्र एवं आभूषण श्रीराजजीकी शोभा अवश्य बढाते हैं जिनको देखती हुई आत्मा पल मात्रके किए भी अपनी दृष्टि उनसे दूर नहीं कर सकती. इस प्रकार श्रीराजजीके एक एक अंगका वर्णन करते हुए उनकी रसनाका महत्त्व समझाया है. उनके वस्त्र और आभूषणोंका वर्णन कर यह भी स्पष्ट किया कि यह वर्णन तो मात्र संकेत है. वास्तवमें श्रीराजजीके स्वरूप एवं श्रृंगारका वर्णन होना ही कठिन है. किन्तु ब्रह्मात्माएँ इनका स्मरण कर जाग्रत हो सकती हैं इसलिए इनका वर्णन किया गया है.
अन्तमें श्रीराजजीने ब्रह्मात्माओंको कैसी शोभा और सम्पदा प्रदान की है उसका विवरण दिया है. इन प्रकरणोंका मनन करनेसे पता चलता है कि प्रियतम परमात्माकी कृपा ब्रह्मात्माओं पर किस प्रकार बरसती है. इस प्रकार सिनगार ग्रन्थ मात्र वर्णनात्मक ही नहीं अपितु जागनीके लिए भी प्रेरक है.
वरनन करो रे रूहजी, हकें तुम सिर दिया भार !
अरस किया अपने दिल को, माहें बैठाओ कर सिनगार !!

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श्री अर्जुन राज
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