7/01/2010

प्रेम पात्र

प्रेम पत्र :-
श्री धामधनीजीके लाड़ले प्यारे सुन्दरसाथजी ! परमधामके चितवनी द्वारा विवेक जाग्रत होने से सत असत का ज्ञान हो जाता है । सत असत के वास्तविक ज्ञान हो जाने के पश्चात पराभव (अनन्य प्रेम) पैदा होता चला जाता है । पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्रीकृष्णजीके लिए तो हृदयका समर्पण ही प्रेम है । प्रेम और परमात्मा एक दूसरे के रूप है "प्रेम ब्रह्म दोऊ एक है" दण्ड देनेका अधिकार भी सिर्फ़ उसे है जो प्रेम करता है, तथा प्रेम, प्रेमी और प्रेमपात्र तीन होकर भी एक है, उस प्रेमका पात्र कैसा होना चाहिए इसी विषय पर इस लेख में विचार किया जा रहा है ।
यह संसार प्रेमके बल पर ही चल रहा है । प्रेमी आत्माकी दृष्टिमें जाती पति मजहब व देश-प्रदेशका प्रश्न नही उठाता है । प्रेम तो जीवनकी मधुराती-मधुर वास्तु है । प्रेम कभी भी हक नहीं माँगता, वह तो हमेशा देता है । आत्म दृष्टिमें सब एक हैं, समदृष्टि है सब उस परात्पर पूर्णब्रह्म परमात्माके बन्दे हैं । इसी पर प्रकाश डालते हुए कबीर साहेबजी कहते हैं - एक नूर से सब जग उपजिया, कौन भले कौन मन्दे । महामति श्री प्राणनाथजी अपने श्री मुख से कहते हैं-
पर सबाब तिनको होवही, छोटा बड़ा जो किन ।
एकै नज़रों देखिए, सबका खाबिंद पिउ !! (श्री तारतम सागर)
प्रेम दुनियाकी रोशनी है । प्रेम में खुदाके नूरकी झलक है । तलवार एक वस्तुके दो टुकड़े करती है । प्रेम दो टुकड़ो (दो दिलों) को एक करता है । रोगी आदमीको प्रेमका एक शब्द सौ डाक्टरोंसे बढ़कर है । प्रेम मानवताका दूसरा नाम है । एक ही सबक सीखनेकी ज़रूरत है; वह है प्रेमका सबक़ । प्रेम अमीर ग़रीब पर समान प्रभाव डालता है । प्रेम भिखारियों तथा बादशाहों को एक ही आसन पर बिठाता है । प्रेमी आत्मा कभी पागल और सज्जन नहीं देखता वह तो चारो तरफ प्रेम ही प्रेम देखता है ।
सच्चा प्रेम लेना नहीं जानता, वह केवल देना जानता है । सच्चे प्रेम में आशा नहीं होता है । प्रेम निस्वार्थ एवं परोपकारी होता है । परमात्मा के मार्ग में आत्माका आशारहित नि:स्वार्थ प्रेम चाहिए । परमात्मा जिस स्थितिमें रखें, उसी में संतुष्ट रहना है । प्रेम आत्माका स्वभाव है, गुण है । यह हम सब में है इसे ही जाग्रत करना है । यह परमात्माका क़ानून है, श्रीराजजी महाराजजीके आदेशकी परिपूर्णता है । प्यारे सुन्दरसाथजी प्रेम लिखने और बोलनेका विषय नहीं है । यह अद्वितीय चमत्कार है । एक चुम्बकीय आकर्षणके समान है । पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्णजी के आदेश के द्वारा ही यह संसार बनाया गया है । यह हुक्म (आदेश) का ही पसारा है, और यहाँ से वापिस ले जाने वाला भी आदेश ही है । खुदी एवं अहंकार के त्याग का नाम ही समर्पण है । इसी से आत्मिक जागृति सम्भव है ।
संसार की कोई वास्तु सरकता रहे, हानी हो जाये, परमात्माका सच्चा प्रेमी कभी दु:खी नहीं होता है । जो दु:ख में दुखी और उदास रहे तो समझिये वह सच्चा प्रेम से दूर है । धामधनी की अंगना तो संकट में भी मुस्कुराती रहती है । प्रसन्न चित्त रहती है । अपने धनीकी याद में आनन्दित रहती है । वह जानती है कि मैं अकेली नहीं, मेरा प्रियतम मेरे पास हमेशा साथ है । वह पूरे संसार के काम, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान को त्याग देती है, एक अपने प्रियतम धामधनी श्री कृष्णजी पर ही विश्वास रखती है । कुरान शरीफ में कहा है-"जाहिदों का वुजू हाथ पैर और मुँह धोकर होता है" ब्रह्मात्माओंका वुजू दुनिया की ओर से हाथ धोना है" श्री तारतम वाणी में कहा है-
मोमिन कहिए वाको, जो छोड़े चौद तबक ।
मा सिवा अल्ला के, और करें सब तारक ।। (श्री तारतम सागर)
सच्चे प्रेम की यही कसौटी है कि उसके पास से अगर कोई सांसारिक वस्तु छिना जाए , तो उसको इसके प्रति कोई दु:ख नहीं होता है । यदि धामधनी की याद, स्मरण, भजन का समय व्यर्थ चला गया तो गहरा दु:ख होता है । प्रेम को इस स्थिति आने पर आत्मा को प्रेम की झलकें प्राप्त होने लगती है । उसे प्रियतम के सिवाय किसी का ध्यान ही नहीं रहता है । व्यवहार में बनिये या व्यापारी के समान लेन-देन करिए परन्तु प्रेमी आत्मा तो निस्वार्थ सेवा करती है । सब भय तथा डर से दूर हो जाती है । एवं राग द्वैष से रहित हो जाता है ।
अगर परिस्थितियां अनुकूल हो, सब प्रकार के सुख चैन हो तो प्रेम के रास्ते पर चलना आसान है, अच्छा लगता है । परन्तु मामूली सी प्रतिकूल परिस्थितियों में हम डगमगाने लगते हैं । प्रेम के रास्ते पर चलने वाला सच्चा प्रेमी उस समयमें भी डगमगाती है । प्रियतम धामधनी पर तन, मन, धन सब न्योछावर उसी प्रकार उसी श्रद्धाभावसे करता रहता है । वास्तव में वह प्रेम, प्रेम नहीं जो परिस्थितियों के बदलने पर बदल जाये । सच्चा प्रेम एक अटल निशाना है जो मुसीबतों के तूफ़ान आने पर भी नहीं बदला जा सकता है। सच्चा प्रेम अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी परिस्थितिमें बदलता नहीं है । किसी भी परिस्थिति से झुकता नहीं है । वह किसी के मिटाए से मिटता भी नहीं है । सच्चा प्रेम एक निश्चल भाव है जो हर परिस्थितियों तथा तूफानों का सामना करता है । बल्कि विषम परिस्थितियों में सच्चा प्रेम और भी मजबूत हो जाता है । क्योंकि वह प्रेम प्रियतम के लिए हैं । प्रेम एक पवित्र भावना है, हृदय की विशालता है जिसमें बेखुदी (निस्वार्थ) की लहरे उमड़ती हैं । सच्चा प्रेम में बनावटी नहीं होता है, असलियत ही उसका पहिचान होता है ।
सन्तों ने प्रेम को दो प्रकार का कहा है । एक बनावटी या मजाज़ी दूसरा पूर्णब्रह्म परमात्माका (मूल प्रेम) पहला लगाव, मोह इस संसारके मान मर्यादा, पद, धन दौलत व संसार के परिवार व बच्चों से है । यह हमको अनित्य पदार्थों से बांधता है । पूर्णब्रह्म परमात्माका (सच्चा प्रेम) हमें अपने प्रियतम में बांधता है । धामधनी से हमारा मूल सम्बन्ध सदैव से हैं । प्रतेक ब्रह्मात्माओं में परमात्माका प्रेम विद्यमान है । परन्तु माया का आवरण पड़ने के बजह हम उनको देख नहीं सकते हैं । इस आवरण (माया) को दूर करने के लिए तारतम ज्ञान तथा धामधनी के दया की परम आवश्यकता है, तभी माया का आवरण दूर होगा ।
प्रिय सुन्दरसाथजी ! सांसारिक प्रेमको छोड़कर प्रियतमके प्रेम पर कुरबान होना है । अपने अन्तर में धामधनी के प्रेम को भरना है । इस प्रेम के बिना भक्ति केवल पाखण्ड है । इस सच्चे प्रेम के बिना मनुष्य पशु के समान है तथा चौरासी का आवागमन में ही रहता है । श्री कबीर साहेबजी ने कहा है-
जहि घट प्रेम न प्रीति, रस पुनि रसना नहीं नाम ।
ते नर पशु संसार में, उपजी खपे बेकाम ॥
हमारी आत्मा के पास प्रेम का गुप्त खजाना है । आत्मा पर माया का आवरण है माया के सम्पर्क से रहित होते ही सच्चा प्रेम जाग्रत होता है । यही धामधनी की प्रार्थना है जो आठों पहर चलती रहती है । प्रेम और संसार एक जगह नहीं रह सकता "अर्स ल्यों या दुनी, दोऊ पाइये न एक ठौर" प्रेम सब सीमाओं से परे हैं । वहाँ मन बुद्धि के क्षेत्र से अलग होकर ही जाना पड़ता है । यह ब्रह्मात्माओं की प्रेम तीनो गुणों से ऊपर हैं । ब्रह्मात्माओं की प्रेम का ज्ञान पुस्तक में नहीं है । यह स्वत: सिद्ध है, अविनाशी है । अनुभव का विषय है । सच्चा प्रेम आने पर अपने प्रियतम के प्रति विरह पैदा होता है इस विरह की अग्नि में ही सत का बोध छिपा है । सत्य और असत्य का जब ज्ञान हो जाता है तभी पूर्णब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत श्री कृष्ण का दर्शन सम्भव है । परमात्मा का सच्चा प्रेमी वही है जो दूसरों को आनन्दरूप करदे । प्रणाम ।
श्री अर्जुन राज