5/09/2010

खिलवत ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री खिलवत ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका अष्टम ग्रन्थ है. विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
खिलवत (खिल्बत) का अर्थ होता है एकान्त मिलन. आत्मा और परमात्माके एकान्त मिलनको महामतिने खिलवत कहा है और एकान्त मिलन सम्बन्धी चर्चायुक्त ग्रन्थका नाम भी श्री खिलवत रखा. यह ग्रन्थ सरल हिन्दीमें है. इस ग्रन्थ का अवतरण वि.सं. १७४० से १७४८ का समय माना गया है. इसमें कुल १६ प्रकरण एवं १०७४ चौपाइयाँ हैं. प्रथम प्रकरण प्रार्थनाका है.
ऐसा खेल देखाइया, मांग लिया है हम !
अब कैसे अरज करूं, कहोगे मांग्या तुम !!
कछू आस न राखी आसरो, ए झूठी जिमी देखाए !
ऐसी जुदागी कर दई, कछू कह्यो सुन्यो न जाए !!
ब्रह्मात्माएँ नश्वर जगतका खेल देखनेके लिए अवतरित हुई हैं किन्तु जगतके प्रपन्चमें भूल कर भौतिक दुखसुखोंका अनुभव कर रही हैं. तारतम ज्ञानसे जाग्रत होने पर उन्हें पता चला कि उन्होंने नश्वर जगतका खेल देखनेके लिए श्री राजजीसे मांग की थी अब वे श्री धामधनीसे खेलकी शिकायत कैसे करेंगी वे अपनी उलझनोंके साथ श्री राजजीसे प्रार्थना करती हैं.
धनी एती भी आसा ना रही, जो करूं तुमसों बात !
ना बात तुमरी सुन सकों, ना देखूं तुमें साख्यात !!
श्री महामतिने यहाँ पर उनकी प्रार्थनाको वाचा दी है. तदन्तर श्री राजजीके सानिध्यकी अनुभूतीके लिए मुख्य बाधक अहंकार 'मैं पन' को दूर करनेका उपाय समझाया-
मार्या कह्या काढ्या कह्या, और कह्या हो जुदा !
एही हैं खुदी टले, तब बाकी रह्या खुदा !!
पेहेले पी तूं सरबत मौत का, कर तेहेकीक मुकरर !
एक जरा जिन सक रखे, पीछे रहो जीवत या मर !!
पन्चरोसनीके पांच प्रकरणोंमें परमधामके रहस्य एवं ब्रह्मात्माओंका पारस्परिक संवाद, श्री राजजीकी सर्वोपरिता,- ए सुख सबदातीत के, क्यों कर आवें जुबान !
बाले थें बुढापन लग, मेरे सिर पर खड़े सुभान !!
एक पातसाही अरस की, और वाहेदत का इसक !
सो देखलावने रूहों को, पेहेले दिल में लिया हक !!
बताया है तथा ब्रह्मात्माओंको जागृत करनेके लिए श्री राजजी द्वारा श्यामजीको सद्गुरुके रूपमें भेजनेका प्रसंग, परमधामके गूढ़ रहस्य एवं श्री राजजी ब्रह्मात्माओं पर किस प्रकार कृपा करते हैं उसका रहस्य स्पष्ट किया है !
इस ग्रन्थमें आत्मा और परमात्माका सम्बन्ध खेलका रहस्य एवं श्री राजजी एवं परमधामकी सर्वोपरिताको संवादके माध्यमसे है. इस ग्रन्थका पाठ करते हुए 'हम श्री राजजीसे बात कर रहे हैं' ऐसा अनुभव होता है !

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
प्रणाम