देखत ना हक तरफ
रे रूह करे ना कछू अपनी, के तूं उरझी उम्मत मांहें !
उमर गई गुण सिफत में, तोहे अजून इसक आवत नाहें !!
हक सिर पर इन विध खड़े, देखत ना हक तरफ !
जो स्वाद लगे मेहेबूब का, तो मुख ना निकले एक हरफ !!
महामति श्री प्राणनाथजी अपनी आत्मा से कहते हैं, हे आत्मा ! तूने अपने लिए कुछ भी नहीं किया. तू अपने लिए भी कुछ कर ले. क्या तू केवल अन्य आत्माओं को जागृत करने में ही उलझी रहेगी ? तू तो स्वयं जाग कर अपने प्रियतम परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पित हुई नहीं. तेरी सारी उम्र प्रियतम परमात्मा के गुण गान में ही बीत गई लेकिन अब तक तुम्हारे हृदय में प्रियतम के प्रति अनन्य प्रेम प्रकट नहीं हुआ !
हे आत्मा ! तेरा प्रियतम तेरे सिर पर सदा सर्वदा निशदिन तेरी सेवामे खड़ा है, फिर भी तू उनकी ओर देखती तक नहीं. यदि अपने प्रियतम परमात्मा के दिव्य प्रेम का तनिक भी स्वाद तुझे लग गया होता, तो तेरे मुख से एक शब्द का भी उच्चारण इस प्रकार नहीं हो पता. क्योंकि जाग्रितात्मा पल भर भी नयनों की पलकें मुंद नहीं सकती और उसके मुख से प्रियतम के प्रेम के सिवा और कोई शब्द उच्चारीत नहीं हो सकता है. प्रियेतम धनी के विरह तो निशदीन पल-पल सताती है. जो आत्मा उनसे एक बार मिल चुकी हो वे भला उनके शिवा कैसे चुप रहपायेगी ! विरहा गत रे जाने सोई जो मिलके विछुरी होए ! ज्यों मीन विछुरी जल थें या गत जाने सोई ! मेरे दुलहा !!
श्री अर्जुन राज
प्रणाम