भूमिका
श्री सागर ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका दशम ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
सागरका अर्थ समुद्र अथवा सिन्धु होता है. इसे नापा-तौला नहीं जा सकता. महामतिने श्री राजजी, श्यामजी एवं ब्रह्मात्माओंके स्वरूप, शोभा, सम्बन्ध आदिको सागरकी भाँति अपरिमेय बताते हुए इनके लिए सागर शब्दका प्रयोग किया है ! उन्होंने श्री परिक्रमा ग्रन्थमें परमधामके आठ सागारोंका वर्णन किया है ये ब्रह्मानन्दरसके सागर हैं. इन्हीं सागरोंकी भाँति मूलमिलावावेकी विविध शोभाओंको भी सागरकी उपमा दी गई है. इस ग्रन्थमें १५ प्रकरण एवं ११२८ चौपाईयाँ हैं !
प्रथम सागर नूर सागर है. नूरका अर्थ होता है प्रकाश. इसमें मूलमिलावेकी शोभा, श्री राजश्यमाजी एवं ब्रह्मात्माओंकी बैठक, उनकी शोभा एवं श्रृंगारका वर्णन है. सर्वत्र इनका ही प्रकाश छाया हुआ दिखाई देता है. दूसरा सागर है ब्रह्मात्माओंकी शोभाका ! ब्रह्मात्माएँ खेल देखनेकी चाह मनमें लेकर उमंग एवं भयके साथ एक दूसरेसे मिलकर बैठी हैं ! वे कभी भी इसप्रकार नहीं बैठीं थीं 'अतंत शोभा लेत हैं, कबूं ना बैठियां यों कर !' तीसरा सागर एक दिलीका अर्थात ब्रह्मात्माओंके एकात्मभावका है. इसका तात्पर्य है कि सभीका भाव एक है और सभी एक समान सुखका अनुभव करती हैं. चौथा सागर युगलकिशोर श्री राजश्यमजीके श्रृंगारका है. महामतिने श्री राजजीके स्वरूप एवं श्रृंगार- वस्त्राभूषणकी शोभाका वर्णन तीन बार किया है. और श्री श्यामजी एवं ब्रह्मात्माओंकी शोभा एवं श्रृंगारका वर्णन क्रमश: दो एवं एक बार किया है. मूलमिलावेकी शोभा ही अनुपम है. उसमें भी सिंहासनपर विराजमान श्रीराजश्यामाजी एवं चबूतरेपर बैठी हुई ब्रह्मात्माओंकी शोभा तो साक्षात शब्दातीत है. पाँचवाँ सागर प्रेम (इश्क) का है. श्री राजजी श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंका प्रेम वर्णनातीत है. आत्मा तागृत होनेपर इसका अनुभव कर सकती है. छठ्ठा सागर ब्रह्मज्ञान (खुदाई इल्म) का है. तारतम ज्ञान ब्रह्मज्ञान है. श्री राजजीके आदेशसे ही इसका अवतरण हुआ है. इसी ज्ञानके द्वारा श्री राजजी श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंके सम्बन्धका अनुभव हो सकता है. सातवाँ सागर सम्बन्ध (निसवत) का है. श्री राजजी श्यामाजी एवं ब्रह्मात्माओंका सम्बन्ध शाश्वत है. परमधाममें यह सम्बन्ध सदैव है. नश्वर जगतमें आनेपर ब्रह्मात्माएँ इसे भूल गई. श्री राजजीने अपनी आत्माओंको ब्रह्मधाम परमधामके सुखोंका महत्त्व समझानेके लिए उन्हें तीनों बार जगतका खेल दिखाया और वे स्वयं भी रहस्यको समझ पाएँगी और श्री राजजी एवं श्यामाजीके साथाके सम्बन्धकी पहचान कर पाएँगी !
आठवाँ सागर कृपा (मेहेर) का है. श्री राजजी स्वयं कृपासिन्धु हैं. उनकी कृपाका कोई पारावार नहीं है. उन्होंने धाम, व्रज, रास एवं जागनी इन चारों लीलाओंके द्वारा ब्रह्मात्माओंको अपनी कृपाका अनुभव करवाया है. ब्रह्मात्माओंपर उनकी कृपा पल पल बरसती है !
इस प्रकार मूलमिलावा (मूल बैठक) के आठ सागरोंके द्वारा महामतिने अक्षरातीतकी शोभा, स्वरूप, श्रृंगार, कृपा आदि सभीको अपरिमेय (शब्दातीत) बताया है !!
बात बड़ी है मेहेर की, हक के दिल का प्यार !
सो जाने दिल हक का, या मेहेर जाने मेहेर को सुमार !!
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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
प्रणाम