श्री परिक्रमा ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका नवम ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
परिक्रमाका अर्थ प्रदक्षिणा होता है. महामति ह्सिर प्राणनाथजीने परमधामके पच्चीस पक्षोंका परिक्रमण करते हुए उनके विशद वर्णन युक्त ग्रन्थका नाम परिक्रमा रखा. यह ग्रन्थ महामतिकी कृति श्री तारतम सागर महाग्रन्थका सबसे बड़ा ग्रन्थ है. इसमें कुल ४३ प्रकरण एवं २४८१ चौपाइयाँ हैं और भाषा सरल हिन्दी है. इसका अवतरण वि.सं. १७४० से १७४८ तक का समय माना गया है !
परमात्माके नाम, स्वरूप, लीला, येश्वर्या, गुण, प्रेम, दया एवं धामके विषयमें बिभिन्न शास्त्रोंमें उल्लेख अवश्य है किन्तु उनका विशद वर्णन कहीं भी नहीं है. महामतिने लगभग छ: हजार चौपाइयोंमें इनका विशद वर्णन किया है. उनमें लगभग २५०० चौपाइयाँ युक्त परिक्रमा ग्रन्थमें मात्र परमधामका वर्णन है.
यह सर्वविदित है कि परमात्मा एवं उनके धामका अनुभव मात्र प्रेमके द्वारा ही संभव है. इसीलिए परमधामका वर्णन आरम्भ करनेसे पूर्व महामति प्रेमका वर्णन करते हैं.
अब कहूं रे इसक की बात, इसक सबदातीत साख्यात !
जो कदी आवे मिने सबद, तो चौदे तबक करे रद !! परिक्रमा.१ चौ. १
ब्रमात्माएँ परमधामका प्रेम लेकर इस जगतमें अवतरित हुई हैं ! इसी प्रेमके द्वारा वे नश्वर जगतमें रहते हुए भी अपने धनी और धामका अनुभव कर पाएँगी. ग्रन्थमें मंगलाचरणके पश्चात् परमधामके संक्षिप्त वर्णनके साथ श्री राजजीकी अष्ट-प्रहारकी चर्चाका वर्णन है. प्रेम प्रकट होनेका उपाय समझाते हुए रंग भवनके चारों ओरके वन-उपवन एवं वहाँकी लीलाके समय श्री राजजीके स्वरूप और श्रृंगारका वर्णन है. तदन्तर यमुनाजीके तटपर स्थित सात घाट, कुंज-निकुंज वन, हौजकोसर ताल, उसके घाट, टापू, महल, फूलबाग, नूरबाग, लाल चबूतरा, ताड़वन, बडावन आदिके वर्णनके साथ पुष्पराग गिरि, वहांके महल, यमुनाजीका उद्गम प्रवाह, दोनों किनारोके दृश्य, दोनों पुल, उसके महल, रंगमहल, ताल नहरें, माणिक्य पर्वत पशुपक्षियोंका प्रेम तथा परमधामके विविध दृष्योंका वर्णन एकसे अधिक बार हुआ है. !
इस प्रकार २९ प्रकरण पर्यन्त धाम-वर्णन कर महामति कहते हैं, सद्गुरुने मुझे जिस प्रकार परमधामके दर्शन करवाए हैं अभीतक उसीके अनुरूप वर्णन हुआ है, अब आगे अपनी अनुभूतीके आधारपर वर्णन करने जा रहा हूँ ! ऐसा कहकर उन्होंने पुन: धामका वर्णन आरम्भ किया. सर्वप्रथम रंगभवनके सम्मुख एवं पार्श्ववर्ती दृश्योंका संक्षिप्त वर्णन कर रंगभवनकी दशों भूमिकाएँ एवं वहांकी लीलाओंका वर्णन किया. तदन्तर परमधामकी सम्पदा, मूलमिलावेके वार्तालाप रंग भवनके बाह्य दृश्य, नूरकी परिक्रमा, दशों भूमिकाओंका वर्णन, रंगभवनका पुन: संक्षिप्त वर्णन, प्रेमका महत्त्व, आदिका वर्णन कर महामति कहते हैं, ब्रह्मज्ञानसे जागृत होकर प्रेमपूर्वक ब्रह्मधामका अनुभव करें !
परिक्रमा ग्रन्थमें, सर्वत्र ब्रह्मधामके विविध दृष्योंका वर्णन है, साथमें धामकी लीलाएँ भी बतायी हैं. इनके हृदयंगमको धामकी चितावनी कहा है !!
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प्रणाम