5/18/2010

सिन्धी ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री सिन्धी ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रन्थ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरका द्वादश ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !सिन्धी भाषामें होनेसे इस ग्रन्थका नाम श्री सिन्धी रखा गया है ! वास्तवमें इसमें आत्म जाग्रितिका आह्वान तथा विरहिनी आत्माकी पुकार है. इसका अवतरण वि.सं. १७४० से ४८ के मध्यका समय माना गया है. इसमें १३ प्रकरण एवं ५२४ चौपाइयाँ हैं और अन्तिम तीन प्रकरणोंका हिन्दी अनुवाद होनेसे तीन प्रकरण एवं ७६ चौपाइयाँ हिन्दी भाषामें हैं. इस प्रकरण कुल १६ प्रकरण एवं 600 चौपाइयाँ हैं ! प्रथम चौपाई आत्म-जाग्रितिका आह्वान करती है !
आखर वेरा उथणजी, आंई रूहें छड़े जा रांद !
उठी बीच अरसजे, कोड़ करे मिंडू कांध !! 
अर्थात हे आत्मा ! यह आत्म-जाग्रितिका अवसर है. इसलिए अज्ञानकी नीन्दमें-से जागृत होकर हर्ष एवं उमंगके साथ परम धाममें उठो और अपने प्रियतम धनीसे मिलो !
इसी प्रकार दूसरी चौपाइमें उपालम्भके द्वारा विरहकी पराकाष्ठा व्याक्त होती है !
आंऊं धनीयाणी तोहिजीं, डे तूं मूं जी रे अंग !
मूं मुंए जे डिए, हे कड़ी निसबत संग !! 
हे धनी ! मैं आपकी धनीयानी हूँ, आप मुझे इसी शरीरमें रहते हुए दर्शन दें ! यदि  देह छूट जाने पर दर्शन देंगे तो आपके साथ मेरा सम्बन्ध ही कैसा ? विरहिणी आत्मा इसी शरीरके द्वारा अपने प्रियतम धनीसे मिलना चाहती है. उसे पियाके दर्शनके अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए. अनेक स्थलों पर महामतिने विरहके साथ प्रार्थना, उपालम्भ भी दिए हैं. सर्वत्र श्री राजजीके आदेशकी प्राधान्यता एवं भूमिका बताई गई है. ब्रह्मात्माएँ श्री राजजीके ही अंग होने से उन्हें मायामें आने पर भी अपने प्रियतम धनीको भूलना नहीं चाहिए  ! देहाध्यासके कारण उन्हें अपने प्रियतम धनीकी पहचान नहीं हो रही है इसलिए दैहिक अहंकारको पहचान कर उसे त्याग दें और श्री राजजीके आदेशका महत्त्व समझ कर उसके अनुरूप कार्यं करें. वास्तवमें ब्रह्मात्माएँ श्री राजजीके चरणोंमें ही रहकर अपनी सुरता के द्वारा ही ऐसा सम्भव हुआ है. इस प्रकार अन्तमें श्री राजजीके आदेशका महत्त्व समझकर यह ग्रन्थ पूर्ण होता है !

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
प्रणाम