5/02/2010

श्री षटऋतु एवं कलश ग्रन्थ महात्म्य:-

भूमिका
श्री षटऋतु एवं कलश ग्रन्थ श्री कृष्ण प्रणामी धर्म-निजानन्द सम्प्रदायके परम पावन महाग्रंथ महामति श्री प्राणनाथजीकी दिव्य वाणी श्री तारतम सागरके तृतीय व चतुर्थ ग्रन्थ है ! विश्वमें प्रचलित भिन्न-भिन्न धार्मिक मत-मतान्तरों, मान्यताओं, विचारों एवं सिद्धान्त पृथक-पृथक अथवा मिश्रित रूपमें समाहित होनेसे महामति श्री प्राणनाथजीके समग्र उपदेशके नवनीतको "श्री तारतम सागर" कहा गया है ! इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति एवं मान्यताओंके साथ साथ परमात्माका धाम, स्वरूप, नाम तथा लीलाओंका विशद वर्णन है ! विभिन्न मत-मतान्तर एवं धर्ममें प्रचलित बाह्य आडम्बरसे मुक्त होकर धर्मके शुद्धस्वरूपके पालनकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त, सुशिक्षित एवं स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गई है ! प्रत्येक सुन्दरसाथके लिए अपने मूल स्वरूप पर-आत्मा, मूलघर परमधाम एवं अपने स्वामी पूर्णब्रह्म परमात्माकी पहचानके लिए मार्गदर्शिका होनेसे इस महाग्रन्थको पूर्णब्रह्म परमात्माकी वांग्मय मूर्तिके रूपमें श्री कृष्ण प्रणामी मन्दिरोंमें पधराकर उसका पूजन, पठन तथा परायण किया जाता है ! इसमें हिन्दी, गुजराती सिंधी, अरबी आदि भाषाओं तथा अरबी फ़ारसी मिश्रित हिन्दी एवं जाटी आदि बोलियोंका प्रयोग हुआ है !
षटऋतु ग्रन्थ गुजराती भाषामें है ! इसमें कुल १० प्रकरण एवं २३०  चौपाइयाँ हैं ! इसका अवतरण वि.सं. १७१४-१५  में नवतनपुरी धाम जामनगरमें हुआ है ! इसमें दो विभाग है, (१) षटऋतु एवं (२) बरमासी ! षटऋतुमें आठ प्रकरण हैं जिनमें छ: ऋतुओंके छ: प्रकरण एवं आधिकमास एवं षटऋतुके कलशके एक एक तथा बरमासीके दो प्रकरण हैं ! एक विरहिणी आत्मा छ: ऋतुओंके प्राकृतिक दृश्योंको देखती हुई अपने प्रियतम परमात्माके विरहमें किस प्रकार व्याकुल होती है, उसका निदर्शन है !
इसी प्रकार कलश ग्रन्थ भी मूलत: गुजराती भाषामें है ! महामतिने स्वयं इसका हिन्दी भाषान्तर किया है ! इसकी आरंभिक चौपाइयोंका अवतरण वि.सं. १७१४-१५ में श्री नवतनपुरी धाम जामनगरमें हुआ ग्रंथका शेष भाग वि.सं. १७२९ में सूरतमें पूर्ण हुआ ! इसलिए इसका अवतरण स्थान सूरत मन जाता है ! इसमें कुल १२ प्रकरण एवं ५०६ चौपाइयाँ हैं ! 'शास्त्र शब्द मात्र जो वाणी, ताको कलश वाणी शब्दातीत' कहकर महामतिने ज्ञानग्रंथोंके कलशके रूपमें इसे शिरोमणि कहा है ! यह ग्रन्थ तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण है ! इसमें प्रथम प्रकरणमें ही आत्मा एवं परमात्माकी वार्तालाप उल्लेख है ! निजानंदाचार्य श्री देवचंद्रजी महाराजके मनमें बाल्याकालसे ही जिज्ञासा रहती थी कि, मैं कौन हूँ, यह संसार क्या है, परमात्मा कहाँ हैं, उनके साथ मेरा सम्बन्ध है या नहीं ? आदि आदि.....! उन्होंने अनेक वर्षों तक खोज की ! चालीस वर्षकी आयुमें उन्हें पूर्णब्रह्म परमात्माके दर्शन प्राप्त हुए और परमात्माने उन्हें तारतम-ज्ञान प्रदान किया, मन्त्र दिया एवं पतालसे परमधाम पर्यंतका अनुभव (दर्शन) करवाया ! दूसरे एवं तीसरे प्रकरणमें नश्वर जगतके खेलका सुन्दर चित्रण किया है ! तदुपरान्त नश्वर जगतमें प्रचलित विभिन्न मत-मतान्तर एवं पंथोंके खींचतानकी बात की है ! विराट ब्रह्माण्डकी उलझनें, वेदोंका रहस्य, अवतारोंका प्रकरण, जागनीका प्रकरण, गोकुल लीला, जोगमायाका प्रकरण, दयाका प्रकरण, हँसीका प्रकरण आदिके पश्चात् जागनीके प्रकरण हैं !
इसमें परमात्माको क्षर अक्षरसे परे अक्षरातीतके रूपमें बताया गया है और उनका स्वरूप शून्य निराकारसे परे सच्चिदानन्द स्वरूप बताया है ! अन्तमें आत्मा जागृत होने पर ही सच्चिदानन्दकी अनुभूति हो पाएगी यह स्पष्ट किया है !!

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श्री ५ नवतनपुरी धाम खिजडा मन्दिर जामनगर
श्री अर्जुन राज
प्रणाम